Saturday 7 September 2013

संत की पहचान

संत और समाज एक दुसरे के परियाइ है। संत का जन्म एक समाज में से ही होता है। और यही समाज के हित की रक्षा का दाइत्व संत का है।संत का घर्म लोगों के चरीत्र की रक्षा करने का है और भटके हुए को मार्ग पर लानेका है।जब समाज में और लोगों के मन में विकृति बढ़ती है तो ऊसपर अंकुश लाने का कायॅ भी संत का है।मन में उठे हुए विचार और भावना के स्वार्थ से दुसरो को दुख न पहोचे एसे संस्कार देने का कायॅ भी संत का है।। अगर इस तरह का आचरण आप करते हो तो आप भी संत ही हो।।      अगर हम डर से,भयभीत हो कर या चमत्कार से संत की शरण में जाते है और श्रध्घा रखते है तो यह हमारी बहुत बड़ी भुल है। इस तरह रखी हुइ श्रध्धा को अंधश्रध्धा कहते है।।   श्रध्धा याने गुरू के वचन का पालन करना और उनके आचरण का अनुसरण करना ।श्रध्धा तो अंध ही होती है, पर अपने शिष्य की श्रध्धा पर अतुट विश्वास बनाकर रखने का कायॅ गुरूजन का है । अगर यही गुरूजन की कथनी और करनी में अंतर अा जाता है तो यही श्रध्धा अंधश्रध्धा बन जाती है ।और एसे गुरूजन अपने ही शिष्य की श्रध्धा के साथ विश्वासधात करते है ।।       कीसी भी प्रकार के भय,डर और चमत्कार के बगैर हमारे भीतर प्रेम के द्वारा जो आत्म विश्वास और श्रध्धा बढ़ाते है उन्हे सतगुरू कहते है।                  जहाँ श्रध्धा की कमी होति है वहाँ असुरक्षित ता का भाव जग जाता है ।और अनेक प्रकार की शंका,कुशंका मन में जग जाती है ।यही शंका कुशंका  मघुर संबंधों में कटुता पैदा करते है। इसी वजह से कइबार संबंध टुट भी जाते है ।।                           शंका कुशंका और असुरक्षित भावना हमें लोभ,लालच,मोह,क्रोध,अहंकार और असत्य के भंवर की और ले जाती है ।हमारा मन अपनी ही शंका को सत्य पुरवार करने के लीए असत्य का सहारा लेता है। और वही सत्य है उसका प्रमाण खुद को दे देता है । इसतरह मन खुद के बनाए हुए भंवर में फँस जाता है ।।                                                      मन अपनी पाँच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से खुद के वासनारूपी अांतर सुख को प्रत्यक्ष भोग ने हेतु अपनी ही पाँच कर्मेन्द्रियाँे को आदेश देता है। तब यह मन अपनी सारी शक्तिओ को एकत्रित करके छल या बल के माध्यम से क्षणीक सुख हाँसिल करता है ।                                             संत वो है जो अपनी पाँच ज्ञानेन्द्रियों को कछुअे के भाती अपने अंकुश में रखता है और दुसरो को अंकुश मैं रखना सीखाता है । जब भी हमारा मन उलझनो में फँसता है या जीवन से दुखी हो जाता है तब वह कृपा का, श्रध्धा का सहारा ढुंढता है । हमारी मजबुरी का फ़ायदा उठाकर डराकर या चमत्कार दीखाकर ऐसे ठग संत के वेशमें  हम पर हावी हो जाते है ।और हमसे पैसों की या अपने शरीर सुख की हवस को भोगते है । उलझन और दुख दुर करने की लालच मैं हम भी खुद को लुटाते रहते है ।।             जीनके सानिध्य से या मात्र चिंतन से मन में शांति और आत्मविश्वास का अहसास होता है वही संत है ।।