Wednesday 28 October 2015

सोलह संस्कार

सोलह संस्कार:- मानव संस्कार वह क्रिया है,जिसके द्वारा धार्मिक,बौद्धिक,शारीरिक,आध्यात्मिक और मानसिक दोषों का निवारण तथा विशेष गुणों की वृद्धि की जाति है । जैसे ज़मीन से निकले हुए रत्न को तरह-तरह की शुद्धि की प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है । फिर उसे सुंदर आकार देकर अलंकृत किया जाता है । जिससे रत्न की सुंदरता बढ़ती है, और वह रत्न मुल्यवान हो जाता है । उसी प्रकार हमारे ऋषि मुनिओने सोलह संस्कार बनाकर जीव को जन्म के साथ मिलि हुइ अशुद्धिओं काे निवारण करने का उपाय ढुंढ निकाला । सारे संस्कारों में उपनयन संस्कार जीव को सुसंस्कृत करता है । जिससे बालक का मन षठ विकारों में न फँसे और जन्म के साथ मिले हुए ध्येय पर बीना अवरोध प्रयाण कर सके ।
गर्भाधान,पुंसवन,सीमन्तोन्नयन,जातकर्म,नामकरण,निष्क्रमण,अन्नप्राशन,चुडाकरण,कर्णबेध,उपनयन,वेदारंभ,समावर्तन,केशान्त,विवाह,अग्न्याधान,अन्त्येष्टि ।
गर्भाधान पुंसवन सीमन्तो जातकर्मच ।
नामक्रिया निष्क्रमणोडन्नाशनं वपन क्रिया ।
कर्णबेधो व्रतादेशो वेदारम्भ क्रियाविधि:।
केशान्त: स्नानमुदवाहो विवाहोडग्नि परिग्रह: ।
गर्भाधान संस्कार :-इस संस्कार में विवाह से तीन दिन तक ब्रह्मचर्य का पालन करना है ।सात्विक भोजन करना है ।और पंडित या पुरोहित को बुलाकर यज्ञ करवाना है ।जिस में अग्निदेव सब दोषों को नष्ट करे,वायुदेव से संतति नाशक दोष,सुर्यदेव से पशुनाशक दोष,चंन्द्रमा से गृह नाशक दोष ओर गंधर्व से यश नाशक दोष दूर करने कि प्रार्थना करते हुए आहुति देनी हैं । जिससे वधु के गर्भ में पल रहे बच्चे की रक्षा होति रहे ।
पुंसवन संस्कार :- इस संस्कार में स्त्री को वटवृक्ष के शुंग को ठंडे पानी में पिसकर दाँइ नासिका में रस डाले या सुँघाए जिससे वंश की रक्षा होती है ।ओर ये कार्य जब चंन्द्रमां पु संज्ञक नक्षत्र में हो तब करना चाहिए । पुंसवन संस्कार के मंत्रों को पढ़ते हुए यह संस्कार गर्भ के दुसरे या तिसरे महीने में कीया जाता है ।
सिमन्तोन्ऩनम् संस्कार:- यह संस्कार गर्भवती पत्निके शरीर की शुद्धि द्वारा गर्भस्थ बालक का बीज गर्भ समुद्रीव दोष को नष्ट करने के लिए तथा वीर प्रसव दीर्घायु  पुत्र या पुत्री की प्राप्ति हेतु किया जाता है ।यह संस्कार केवल प्रथम गर्भ में छठे या आंठवे मास में जब चंन्द्रमा पुंसज्ञक नक्षत्र पर हो करना चाहीए यह एक ही बार किया जाता है ।इसके करने से जो अद्रश्य रूप से भुत,राक्षसगण,रुधिर प्रिय ओर अलक्ष्मी आदि गर्भवती को स्पर्श नहीं कर सकेंगे ।सौभाग्यलक्ष्मी का गर्भवती में वास होता है,उसके अंग कि और बुद्धि की शुद्धि होती है । बालक बुद्धिमान बलिष्ठ दीर्घजीवी होता है । 
जातकर्म संस्कार :-उत्पन्न होने वाले शिशु के निमित्त कर्म । यह गर्भ में रहते हुए माता के द्वारा भुक्त अन्न जल के रस से पुष्ट बालक के गर्भाम्बु पान आदि दोष को दूर करने के लिए और आयु,मेघा वृद्धि के लिए किया जाता है ।
नाम कर्ण संस्कार :-जन्म के दश दिन के बाद विधि विधान से राशी और नक्षत्र के अक्षरों के आधार पर नाम करण करना आवश्यक है । 
निष्क्रमण संस्कार:- इसका अर्थ है घर से बाहर निकलना, ताकि शिशु बाह्य जगत से भी परिचित हो सके उन्मुक्त वातावरण में क्रीड़ा कर सके ।इसमें शिशु को चौथे मास में शुभ नक्षत्र को देखकर माता कि गोद से बालक को पिता लेकर घर से बाहर आकर सुर्यदेव के दर्शन कराते है ।और सुर्यदेव का मंत्र बोलते हुए बालक कि दिर्घायु की कामना रखते हुए प्रार्थना करते है ।
अन्नप्राशन संस्कार :- शिशु के विकास शील देह की आवश्यकतानुसार ठोस आहार की आवश्यकता होती है ।अन्न चटाना,पिता, कीसी गुरुजन या अच्छे व्यक्ति के द्वारा पाँचवे या छठे मास में अन्नप्राशन करवाना चाहीए ।जिससे बालक बुद्धिजीवी बने और शरीर बलिष्ठ बने ।
चुडाकरण संस्कार :- इस संस्कार र को मुण्डन भी कहते है ।यह त्वचा संबंधी रोगों के लिए लाभकारी है । जन्म के एक वर्ष के अंदर या तीसरे वर्ष में कुल के अनुसार यह संस्कार किया जाता है ।इसमें शुभ दिन और शुभ नक्षत्र देखना आवश्यक है ।
हारीत कहते है -गर्भाधान से ब्रह्म गर्भ धारण करता है,पुंसवन से पुत्र की उत्पत्ति होती है, फल स्नान कराने से पितृ विर्य जन्म सारे दोष दूर होते है ।तथा माता के रक्त में जो दोष होते है वे दूर होते है ा गर्भाधान से मुण्डन तक के संस्कार गर्भ विर्य जनित दोषों के शान्ति तथा तेजस्विता सदविचार,कर्मनिष्ठा बढ़ाने और दुराचार की निवृत्ति के लिए किये जाते है ।
कर्णबेध संस्कार :-उपनयन संस्कार से पहले कर्णबेध संस्कार किया जाता है । कहा जाता है कि हमारी सभी नाड़ीयाँ कर्णपर आकर रूकती है ।कर्णबेध ने से नाडीयोँ में संचार होता है, जीसके कारण श्रुति और स्मृति कि क्षमता बढ़ जाती है जो वेदारम्भ और विद्यारंभ संस्कार में उपयोगी होता है ।
उपनयन संस्कार:- उपनयन संस्कार का ही अपर नाम उपवीत,यज्ञोपवीत,व्रतबंध,ब्रह्मेसुत्रधारण,मौजीबंधन,जनेउ आदि नाम है ।उप समिपे :- गुरु समिप , वेदाध्ययन के लिए गुरु के समिप जिस क्रिया के द्वारा बालक को पहोंचाया जाता है उसे उपनयन संस्कार कहते है । आगे के सभी संस्कार ५ से ९ वर्ष की आयु में हो जाते है उसके बाद ही बालक उपनयन संस्कार का अधिकारी होता है । अगर कोइ संस्कार बाक़ी रह गया है तो एसी स्थिति में प्रायश्चित्त विधि करके उपनयन किया जा सकता है ।उपनयन में वेदमाता गायत्री माँ के मंत्र से बालक के पिता,गुरु,आचार्य या ब्राह्मण द्वारा श्रुति स्मृति के माध्यम से अभीमंत्रीत किया जाता है । जनेउ को धारण करते हुए बालक गायत्री मंत्र का संकल्प लेता है ।       और संध्या वंदन के द्वारा मंत्र को आत्मसात करता है ।
पवित्रता पुर्वक पवित्र स्थान पर बैठकर कपास या नरम रुई से सुत का धागा बनाए । ब्राह्मण अथवा जिनको इसका ज्ञान है वही त्रिसुत्री बनावे  सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार एक मनुष्य की लंबाइ हम अगर अपने हाथ की चार उँगलीओ से नापे  तो ८४ से १०८ अंगुल के बीच होती है । ८४ से १०८ का मध्य ९६ वे होता है । इसलिए जनेउ की लंबाइ भी ९६ वे अंगुल होती है ।
दुसरा आधार है,गायत्री मंत्र २४ अक्षरों का है और ४ वेद है । २४ को चौगुने करें तो ९६वे होता है तो जनेउ के सुत की लंबाइ ९६वे अंगुल होनी चाहीए ।
तीसरा आधार है १५ तिथियाँ,४ वेद,३गुण,७ बार,२७ नक्षत्र,३ काल १२ मास इन सभी की संयुक्त संख्या ९६ होती है ।यज्ञोपवीत में सभी निहित है । इसलिए वह ९६ अंगुल का होता है ।
इस प्रकार निर्मित त्रिसुत्री के प्रत्येक सुत्र में नौं सुत्र होते है । इन सुत्रो में क्रमश नौं देवता :- ओंमकार,अग्नि,नाग,सोम,पितृ,प्रजापति,वायु,यम,सुर्यदेव ये सर्व देवता निवास करते है । और सभी देवता यज्ञोपवीत के माध्यम से अपना गुण प्रदान करते है ।
उपनयन संस्कार कौन कर सकता है ।
अगर ५०वर्ष पुर्व के भारत को देखेंगे तो उसवक्त भारत में वर्णाश्रम प्रथा हुआ करती थी ।पुजा,कर्मकांड और वेद पढ़ने वाला ब्राह्मण हुआ करता था ।व्यापार उध्योग से जुड़े हुए लोगों को वैश्य कहा जाता था । समाज की रक्षा करने वाले रक्षक को क्षत्रिय कहते थे ।सफ़ाई कार्य से जुड़े हुए को शुद्र कहते थे । पर वर्तमान स्थिति में देखें तो ब्राह्मण व्यापार करता नझर आ रहा है ।क्षत्रिय पुजापाठ मेंजुडे हुए दीखते है ।क्षुद्र भी व्यापार करने में लगा हुआ है । याने सभी वर्ण के लोग परिस्थिति के आधिन होकर अपने कर्मक्षेत्र को चुनने लगे है ।उसवक्त शुद्र के अलावा बाक़ी तीन वर्ग उपनयन याने जनेउ धारण के अधिकारी थे ।और ब्रह्मवादिनी स्त्रीयों का यज्ञोंपवित वेदाध्यन में अधिकार था । जैसे गार्गी आदि ऋषि पत्नियाँ जनेउ धारण करती थी । पर बाद के कइ टीकाकार जैसे की गोविन्दराज, श्री नारायण ,राघवानंद सभी का मानना था की स्त्रियों के लीए विवाह संस्कार ही यज्ञोपवीत संस्कार है ।
पर अाज की स्थिति में देखें तो नाहीं वर्णाश्रम रहा है,नाहीं सोलह संस्कार । आधुनिकता की दौड़ में हमारी परंपरा और संस्कारों को हमने पीछे छोड़ दीया है । हमारे समाज में विक्रृतियां बढ़ने का यही मुख्य कारण है ऐसा हमारा मानना है ।
आज के युग के हिसाब से पुज्यगुरुदेव ने यही संस्कार को बहुत सरल कर दिया है । जो बालक,स्त्री या पुरुष ब्रह्मवादिनी या ब्रह्मज्ञान को इच्छुक है वह यज्ञोंपवित याने उपनयन संस्कार का अधिकारी है ।
वेदारम्भ या विद्यारंभ संस्कार :- उपनयन संस्कार के बाद इस संस्कार में ब्रह्मचारीओ को आचार्य अपने समिप बीठाकर श्रुति और स्मृति के माध्यम से वेदीकर्म,अग्नि स्थापन,ब्रह्मवरण और हवन कराना सिखाते है ।और चारों वेंदो का अध्ययन भी इसी संस्कार में किया जाता है ।
समावर्तन संस्कार :-यह संस्कार ब्रह्मचर्याश्रम कि समाप्ति और द्वितीय गृहस्थआश्रम के प्रारंभ कि मध्य कड़ी है । वेदारम्भ संस्कार कि समाप्ति होने पर यह संस्कार किया जाता है ।
विवाह संस्कार :- आकर्षण और विकर्षण के आधार पर ही सृष्टि का निर्माण होता है । जीव अपने कर्मों के आधार पर पुरुष या स्त्री के रूप में शारीरिक देह धारण करता है ।संसार में सभी को एक दूसरे साथी कि आवश्यकता पड़ती है ।जिससे शेष कि पूर्ति होती है ।नैसर्गिक काम प्रवृति का साधन तथा स्रृष्टि के संवर्धन में वृद्धि  एवं सहायक का यह कार्य है ।
विवाह का कार्य पंचमहाभूत अग्नि,वायु,जल,पृथ्वी और आकाश को साक्षी मानकर दो जीवों का मिलन होता है ।ज्योतिष शास्त्र में दोनो के जन्म समय के वक़्त ग्रहदोष,नाडीदोष और गणदोष नहीं है वह दोनों कि कुंडली के माध्यम से देखा जाता है ।जिससे उनके वैवाहिक जीवन मेंकोइ बाधा न आए और एक दूसरे के प्रति प्रेमभाव रखते हुए जीम्मेंवारी निभा सके ।
ब्रह्मचर्याश्रम से दूसरे आश्रम में यदि व्यक्ति नहीं जाता है तो वह प्रायश्चित्त का भागी होता है ।इसका कारण यह है कि वयस्क होनेपर काम वेदना स्वतः स्फुरित हो जाती है । सांसारिक जिवन में जिसकी शांती स्त्री परिग्रह से ही होसकती है ।अन्यथा काम वासना में परवश होकर प्राणी इधर-उधर भटकता हुआ कुल समाज से अनपेक्षित गर्त से गिरेगा और अशान्त रहकर अनुचित तथा अमर्यादित कार्य करता रहेगा । विवाह संस्कार पंडीत या पुरोहित को बुलाकर विधिवत षोडषोपचार के साथ अग्नि कि साक्षी में हस्तमेलाप के समय को ध्यान में रखते हुए कीया जाता है ।
अग्नि संस्कार:- जब जीव का शरीर के साथ संबंध पुरा होजाता है तब वह शरीर को त्याग देता है । शरीर में प्राणतत्व का अभाव होने से व्यक्ति मृत हो जाता है ।ऐसे पार्थिव शरीर को अग्नि संस्कार के द्वारा पंचभुत में विलीन करते है । 
अंन्त्येष्टी संस्कार :- अन्त्य+इषक्तिन्
जीव जब शरीर को छोड़ता है उसवक्त जीव के अंन्तःकरण में कुछ अतृप्त वासना रुपी इच्छा रह जाती है । ऐसी अतृप्त इच्छा अपने उत्तराधिकारी द्वारा पुरी करने कि विधि को अंन्त्येष्टी संस्कार कहते है । जीव को शरीर छोड़ते समय कौनसी ज्ञानेन्द्रिय कि इच्छा कौनसी कर्मेन्द्रियँ में अतृप्त रूप में छीपी हुइ है वह ज्ञात नहीं होता ।
इस संस्कार में चावल ओर जल से भाँत बनाकर उस भाँत का अलग अलग कर्मेन्द्रियँ के नाम का पींड बनाते है, फीर उसे पाँच भाग में बाँटकर जीव का आवाहन करके उसकी अतृप्त इच्छा को उस पींड में स्थापित करते है । आख़ीर में उस पींड का तर्पण करते हुए जल में प्रवाहित करते है ।
अंन्त्येष्टी संस्कार के द्वारा जीव को  पीछले जन्म के कर्मों से मुक्त होता है और मोक्ष या नये जन्म कि तरफ़ प्रयाण करता है ।