tag:blogger.com,1999:blog-70187587425994587392023-11-16T02:56:15.739-08:00SwamitejomayjiAnonymoushttp://www.blogger.com/profile/02317505440579481583noreply@blogger.comBlogger29125tag:blogger.com,1999:blog-7018758742599458739.post-48609398964076227662021-09-30T20:26:00.000-07:002021-09-30T20:26:34.306-07:00YOGA VASHISHTH GEET GAGA<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: left;">
<span style="font-size: large;">1.अनंत दृश्य है ब्रह्मरूप , बिना ज्ञान न जाए दृश्य स्वरूप । 2.कैसे पाएगा ब्रह्मरूप , जो फँसा है भ्रम में देहादी रूप। 3.जो पाएगा तत्त्वज्ञान का सार ,वो ही कर सकेगा भवसागर पार।</span></div>
<div style="text-align: left;">
<span style="font-size: large;">4. जो समझे समान वस्त्रादिक, स्त्री और शस्त्रों का स्पर्श, वही धीर पुरुष जानेगा, परम पद का अर्थ।</span></div>
<div style="text-align: left;">
<div style="text-align: left;">
<span style="font-size: large;">5. आहार से प्राण धरे, प्राण धरे जिज्ञासा का ज्ञान,</span></div>
</div>
<div style="text-align: left;">
<div style="text-align: left;">
<span style="font-size: large;"> जिज्ञासा तत्वज्ञान धरे, छूटे जन्म- मरण का अज्ञान।</span></div>
</div>
<div style="text-align: left;">
<span style="font-size: large;">6. वही पाएगा मुक्ति, जो करे भोगों का त्याग,</span></div>
<div style="text-align: left;">
<span style="font-size: large;"> केवल आत्मचिंतन, पुरुषार्थ, करे निग्रह मन इन्द्रियोँ का त्याग।</span></div>
<div style="text-align: left;">
<span style="font-size: large;">7. द्रश्य पर रहे द्रश्य की सत्ता, तब तक न पाओगे अद्रश्य का ज्ञान</span></div>
<div style="text-align: left;">
<span style="font-size: large;"> जिसने जाना अद्रश्य का ज्ञान, उसी ने पाया तत्व का ज्ञान।</span></div>
<div style="text-align: left;">
<span style="font-size: large;">8. बोध ब्रह्म का उसी को देना, जिसने किया भोंगों का त्याग,</span></div>
<div style="text-align: left;">
<span style="font-size: large;"> उसकी इच्छा शांत हुई, किया जिसने मन, वासना का त्याग।</span></div>
<div style="text-align: left;">
<span style="font-size: large;">9. वैराग्य विषय पर पाया जिसने, उसने पाया समाधि का स्वरूप ,</span></div>
<span style="font-size: large;"> जीवन हुआ जिसका वासना रहित, उसने पाया मोक्ष का स्वरूप ।</span><br>
<span style="font-size: large;">10. आश्रय निःसंकल्प का लिया, किया आभास असत्य देहादि भाव,</span><br>
<span style="font-size: large;"> हुआ जिसका साक्षी चैतन्य भाव, स्थिर हुआ उसका ब्रहम स्थिति में भाव।</span><br>
<span style="font-size: large;">11. वृद्धि संसार से बढ़े जड़ता, बढ़े अखड़ता और अज्ञान,</span><br>
<span style="font-size: large;"> जिस ज्ञान से बढ़े वैराग्य और ध्यान, उसी को कहते हैं ज्ञानी ब्रह्म ज्ञान।</span><br>
<span style="font-size: large;">12. जगत दिखे अविवेकी को सत्य, विवेकी देखे उसे मिथ्या स्वरूप ,</span><br>
<span style="font-size: large;"> शांत धीर पुरुष देखे उसे शून्य रूप, ब्रह्म ज्ञानी देखे उसे ब्रह्म स्वरूप ।</span><br>
<span style="font-size: large;">13. जिसका चित्त द्रश्य में आसक्त न हो, वही ब्रह्म चित्त जीवन मुक्त कहलाए।</span><br>
<span style="font-size: large;">14. श्रवणता से बढ़े बोध का ज्ञान, ज्ञान से बढे समानता और ध्यान,</span><br>
<span style="font-size: large;"> समानता से बढ़े जागरुकता में सुषुप्ति का भान, वही पाता है निर्विकल्प समाधि का ज्ञान।</span><br>
<span style="font-size: large;">15. जो माने संसार को अरण्य रण, वह शांत चित्त पुरुष कहलाए ,</span><br>
<span style="font-size: large;"> अशांत चित्त पुरुष ही, अरण्य में भी संसार को फैलाए।</span><br>
<span style="font-size: large;">16. जैसे लता, तृण और काष्ठ प्रतिमा, रहे बंधन अबंधन में मौन,</span><br>
<span style="font-size: large;"> वैसे मान अपमान और क्रोध भाव में, रहे तत्वज्ञानी भी मौन।</span><br>
<span style="font-size: large;">17. अधम स्थिति है बंधन की आस्था, उत्तम स्थिति है विषयों में अनास्था,</span><br>
<span style="font-size: large;">18. है देहादि दुख भिन्न,जैसे हो भिन्न देह में,</span><br>
<span style="font-size: large;"> करे तत्वज्ञ पुरुष अनादर, वैसे ही भिन्न- भिन्न देह में।</span><br>
<span style="font-size: large;">19. अविवेकी माने जगत अनंत, विवेकी माने ब्रह्म अनंत, </span><br>
<span style="font-size: large;"> निर अहंकारी का जीवन मुक्त, अनंत, जैसे आकाश निर्मल निःसंकल्प अनंत।</span><br>
<span style="font-size: large;">20. जुड़े जीव द्रश्य और वासना, बने भाव स्थूल- सूक्ष्म स्वरूप ,</span><br>
<span style="font-size: large;"> जुड़े जब चैतन्य से चैतन्य का रूप, तब बने जीव पूर्णचैतन्य रूप।</span><br>
<span style="font-size: large;">21. विषय करे भोग की आशा, तब आत्मा जीव स्वरूप , </span><br>
<span style="font-size: large;"> विषय को मिले भोग से मुक्ति, तब जीव परमात्मा स्वरूप ।</span><br>
<span style="font-size: large;">22. द्रष्टा द्रश्य में स्थिर रहे तो पाए दुःख रूपी संसार, </span><br>
<span style="font-size: large;"> द्रष्टा खुद में स्थित रहे, तो करे भव सागर पार।</span><br>
<span style="font-size: large;">23. अज्ञानी देखे विषय भाव रूप, चैतन्य, ज्ञानी देखे सर्व साक्षी स्वरूप ।</span><br>
<span style="font-size: large;">24. जैसे काल ,कर्म और वासना, कल्पना का आश्रय करे, </span><br>
<span style="font-size: large;"> वैसे चिद्रुप परम तत्व, वैसे ही आसक्ति का स्वरूप धरे</span><br>
<span style="font-size: large;">25. जैसे जल में रहे चक्रवात, वैसे जीव संकल्प स्फुरण करे</span><br>
<span style="font-size: large;"> बिना इच्छा बुद्धि चलन ही, जाग्रत सृष्टि स्वप्न सृष्टि धारण करे,</span><br>
<span style="font-size: large;">26. जैसे पवन रहे चपल चंचल, वैसे जल में रहे द्रव्य सार का आभास,</span><br>
<span style="font-size: large;"> वैसे ही उत्पत्ति स्थिति और लय का, चिदाकाश के अन्दर आभास।</span><br>
<span style="font-size: large;">27. ब्रहम ही ब्रह्मा स्वरूप है, ब्रहमा स्वरुप है ब्रहम , </span><br>
<span style="font-size: large;"> वैसे ही जीव ही आत्मा स्वरुप है, आत्मा स्वरूप है ब्रह्म।</span><br>
<span style="font-size: large;"> ब्रहम ही करे अनुभव आत्मा का, आत्मा करे अनुभव ब्रह्म</span><br>
<span style="font-size: large;"> जो ज्ञानी करे अनुभव एकत्व का, वही ब्रह्म ज्ञानी है ब्रह्म।</span><br>
<span style="font-size: large;">28. कारण न दिखे कोई जगत के उद्गम का, है शांत अजन्मा ब्रह्म ही जगत का स्वरूप ,</span><br>
<span style="font-size: large;"> जो बना के रखे सदा अपने मन को बोध रूप, वह ब्रह्म ज्ञानी पाए सदा जाग्रत सुषुप्ति तुर्य अवस्था का स्वरूप ।</span><br>
<span style="font-size: large;">29.जिसने पहचाना आत्मा का वास्तव स्वरूप ,उसी ने पहचाना अद्वितीय ब्रह्म रूप।</span><br>
<span style="font-size: large;">30. चेतना जो संकल्प करे वही जगत का रूप,</span><br>
<span style="font-size: large;"> उदय हुआ जगत ही, है जगत पूर्ण ब्रह्म रूप।</span><br>
<span style="font-size: large;">31. अहंता और काल सत्ता, है जगत के दो बीज, </span><br>
<span style="font-size: large;"> चित्त ब्रह्म की धरा पर, होता अंकुरित सृष्टि रुपी बीज।</span><br>
<span style="font-size: large;">32. परस्पर सम्बन्ध जैसे- दर्पण और प्रतिबिम्ब का, अनिच्छा ही सम्बन्ध वैसे, आत्मा के ही प्रतिबिम्ब जगत का।</span><br>
<span style="font-size: large;">33. द्रष्टा द्रश्य दर्शन है, चिदाकाश के ही रूप,</span><br>
<span style="font-size: large;"> ये ही परमानन्द परब्रह्म रूप, बाकि सब भ्रान्ति स्वरूप ।</span><br>
<span style="font-size: large;">34. खुली आँख दृश्य समान, बंद आँख प्रलय समान,</span><br>
<span style="font-size: large;"> द्रश्य- प्रलय का मध्य ही, परब्रह्म परमात्मा के समान,</span><br>
<span style="font-size: large;">35. टकराए जैसे तरंग समुद्र में और होती विलीन समुद्र में,</span><br>
<span style="font-size: large;"> टकराए वैसे सर्व व्यवहार चिदाकाश में और होती विलीन चिदाकाश में।</span><br>
<span style="font-size: large;">36. जब तक न जाना स्वरूप अपना, तब तक चिदात्मा मोह धारण करे,</span><br>
<span style="font-size: large;"> जैसे ही ज्ञात हुआ स्वरूप अपना, वैसे ही चिदात्मा मोक्ष धारण करे।</span><br>
<span style="font-size: large;">37. होती है प्रतीति हर द्रश्यमान के होने की, जो केवल भ्रम है,</span><br>
<span style="font-size: large;"> पर नहीं होती प्रतीति परब्रह्म की, जो केवल सत्य है।</span><br>
<span style="font-size: large;">38. हर जीवात्मा की भावना, जब- जब चिदात्मा को धारण करे,</span><br>
<span style="font-size: large;"> तब- तब अपने निमित्त भोगों के आधार से, वह अनुभव करे भिन्न- भिन्न जीव के आकार से।</span><br>
<span style="font-size: large;">39. बिना नाव के तीन समुद्र- अहंकार, देह, पुत्रादिक संसार,</span><br>
<span style="font-size: large;"> छोड़े जो यह वासना के तीन विकार, हो जाये वो भव सागर पार।</span><br>
<span style="font-size: large;">40. जब तक रहे चित्त में वासना, तब तक वह मन कहलाए ,</span><br>
<span style="font-size: large;"> वासना रहित मन ही ज्ञान रूप कहलाये।</span><br>
<span style="font-size: large;">41.जबतक रहे चित्त में वासना ,तबतक वह मन कहेलाए ,</span><br>
<span style="font-size: large;"> वासना रहित मन ही ,ज्ञानस्वरूप कहलाए</span><br>
<span style="font-size: large;">42.इन्द्रिय देह में "मैं "का भाव ,स्त्री पुत्र में ममत्व का भाव</span><br>
<span style="font-size: large;"> फिर कैसे रहे चित्त में शांति का भाव</span><br>
<span style="font-size: large;">43.मन ही समझे मन की बात ,मन ही जनमता मन ही बढ़ाता</span><br>
<span style="font-size: large;"> ब्रह्मविध्या के ज्ञान से ,मन ही मोक्ष को पामता</span><br>
<span style="font-size: large;">44.जब चित्त करता विश्रांति से केवल द्रढ़ निश्चय</span><br>
<span style="font-size: large;"> वह पाता परार्थ द्रष्टि से सत्य का परिचय</span><br>
<span style="font-size: large;">45.विवेक-अविवेक मनरूपी गंगा की दो धाराऐं</span><br>
<span style="font-size: large;"> यत्न से करे मन में जो द्रढ़ निश्चय</span><br>
<span style="font-size: large;"> तो बहे उसी दिशा मे जल धारा</span><br>
<span style="font-size: large;">46.इन्द्रिय रूपी रथ का, चित्त सारथी कहलाए।</span><br>
<span style="font-size: large;"> दिशा-निर्देष सही करे तो ,वही परमतत्व कहलाऐ।</span><br>
<span style="font-size: large;">47.करे मन जो कामना ,तो मन अधोगति को जाए।</span><br>
<span style="font-size: large;"> करे दुष्कर्म का त्याग जो ,तो मन कामना रहित हो जाए। </span><br>
<span style="font-size: large;">48.स्वप्न में स्वप्न को देखना ,स्वप्न ही स्वप्न का स्वरूप,</span><br>
<span style="font-size: large;"> क्या सत्य क्या असत्य ,यह जगत ही भ्रम स्वरूप।</span><br>
<span style="font-size: large;">49. विस्तृत स्थिति जगत की ,भावना से ही हो जाए</span><br>
<span style="font-size: large;"> मित्र, पुत्र, स्नेह, मोह की दशा ,भावना से ही फेलाए।</span><br>
<span style="font-size: large;">50.न पहचान सके सामान्य जन ,जब मृत्यु सामने आ जाए</span><br>
<span style="font-size: large;"> न पहचान सके वो आयुष्य को ,जो रेत की तरह फिसल जाए ।</span><br>
<span style="font-size: large;">51. जो निश्चय अंतरात्मा करे, वह अखंडित ग्रहण हो जाए ,</span><br>
<span style="font-size: large;"> ऐसा कुछ नहीं तीहुँ लोक में, जो द्रढ़ संकल्प से न आए।</span><br>
<span style="font-size: large;">52. भावना जैसी जिसकी बने, वैसों ही वह हो जाए,</span><br>
<span style="font-size: large;"> इच्छा जैसी जिसकी बने, वह फलित हो जाए।</span><br>
<span style="font-size: large;">53. जीवन- मरण की इच्छा न करे, जो कोई तत्वज्ञ पुरुष,</span><br>
<span style="font-size: large;"> सत्य-निष्ठा से व्यवहार करे, वही सर्वज्ञ पुरुष।</span><br>
<span style="font-size: large;">54. तरता है संसार वही, जो ज्ञान का चिंतन करे,</span><br>
<span style="font-size: large;"> न मिल सके उसे मुक्ति, जो केवल वनवास कष्ट दायक तप धरे।</span><br>
<span style="font-size: large;">55. श्रुति ज्ञान की जो करे, वो बोध प्राप्त कर जाये,</span><br>
<span style="font-size: large;"> अविचार रूप अनर्थ छोड़ के, द्रश्य आत्मा में द्रढ़ कर जाए ।</span><br>
<span style="font-size: large;">56. जो धनी रहे निंदा रहित, शूरवीर रहे शांत चित्त,</span><br>
<span style="font-size: large;"> और समर्थ रखे सम दृष्टि सदा, वही तत्व ज्ञानी कह लाये।</span><br>
<span style="font-size: large;">57. मन के आकाश में होता है जिसका, मेघ रुपी अहंकार शांत,</span><br>
<span style="font-size: large;"> उस धीर पुरुष के मन से उड़ता, मोह रुपी तुषार का अज्ञान।</span><br>
<span style="font-size: large;">58. जो केवल पकड़े चिन्तन और ज्ञान, छूट जाती है उसकी चिंता और अज्ञान,</span><br>
<span style="font-size: large;">59. मैं देह हूँ , मैं देह का हूँ , देह मेरी है, वह देहादि पुरुष अहंकारी कहलाए ,</span><br>
<span style="font-size: large;"> में देह नहीं हूँ में देह का नहीं हूँ देह मेरी नहीं है, वह सहज पुरुष ब्रह्म ज्ञानी कहलाए ।</span><br>
<span style="font-size: large;">60. बचपन बीते मोह में, यौवन अत्यंत वेगशील, </span><br>
<span style="font-size: large;"> आयुष्य बीते चंचल चपल, मृत्यु बीते कठिन।</span><br>
<span style="font-size: large;">61. काल खींचे आवक जावक पदार्थ को , वासना खींचे मोह संसार को ,</span><br>
<span style="font-size: large;"> काल खींचे समग्र समूह जीव को , ब्रह्म ज्ञानी खींचे सार जीवन को ।</span><br>
<span style="font-size: large;">62. वासना रहित मन है मोक्ष का द्वार, </span><br>
<span style="font-size: large;"> वासना से भरी इन्द्रिय है, बंधन का आधार।</span><br>
<span style="font-size: large;">63. जैसी जिसकी वासना, वैसा कर्म रूप पाए , जो रखे शम विचार, संतोष, साधु समागम, वह मोक्ष द्वार पार कर जाए। </span><br>
<span style="font-size: large;"> </span><br>
<span style="font-size: large;">64. जो करे अभ्यास से अनुभव हर पल, जो सुने शास्त्र और गुरु वचन हर पल,</span><br>
<span style="font-size: large;"> वह संत पुरुष स्वरूपानंद कहलाए ।</span><br>
<span style="font-size: large;"> 65.जो करे उपेक्षा संसार की हर वक्त, जलाता है वह घर उसका ही हर वक्त,</span><br>
<span style="font-size: large;"> 66.सद विचार से तत्वज्ञान बढे, तत्वज्ञान से बढ़े आत्मानंद, </span><br>
<span style="font-size: large;"> आत्मानंद से मन में विश्रांति बढे, विश्रांति से छूटे दुखों का द्वंद .</span><br>
<span style="font-size: large;">67. मिटती है भ्रान्ति, दारिद्य दुःख मरण की, जब होता है सद गुरु से समागम।</span><br>
<span style="font-size: large;">68. संतोष ही परम लाभ है, सत्संग है परम गति का स्थान, </span><br>
<span style="font-size: large;"> सद विचार ही परम ज्ञान है, श्रम है परम सुख का धाम।</span><br>
<span style="font-size: large;">69. जब मन फँसता है मोह माया से, तब फैल जाती है अज्ञान की छाया,</span><br>
<span style="font-size: large;"> जब मन जगता है ज्ञानतेज से, तब मन बढ़ता है ब्रह्मतेज से।</span><br>
<span style="font-size: large;">70. जब तक मन न समझा मिथ्या जगत को, तब तक वह न समझा तथ्य परम तत्व को,</span><br>
<span style="font-size: large;"> जिस दिन माना शून्य जगत को, उस दिन पाया ब्रह्म तत्व को।</span><br>
<span style="font-size: large;">71. स्थिति जगत की न है खुद की सत्ता से, स्थिति जगत की है अधिष्ठान की सत्ता से,</span><br>
<span style="font-size: large;">72. जैसे समुद्र के गर्भ का जल, प्राप्त करता है तरंगों को,</span><br>
<span style="font-size: large;"> वैसे परब्रह्म के गर्भ का जीव, प्राप्त करता है जीवन को।</span><br>
<span style="font-size: large;">73.जैसे अंश मात्र हैं तरंगें समुद्र की, तब भी वह समुद्र ही कहलाए , </span><br>
<span style="font-size: large;"> वैसे ही अंश मात्र है जीव परब्रह्म का, फिर भी वह परब्रह्म कहलाए।</span><br>
<span style="font-size: large;">74. जो पाया स्वप्न जगत में वही पाया संकल्प जगत में, जो पाया संकल्प जगत में वही पाया जागृत जगत में, </span><br>
<span style="font-size: large;"> जो समझा भ्रान्ति जगत में वही समझा लीला जगत में, जो समझा लीला जगत में वही समझा ब्रह्मत्व जगत में। </span><br>
<span style="font-size: large;"> </span><br>
<span style="font-size: large;">75. जीव ब्रह्म है वो ब्रह्म ही को जाने, जो ब्रह्म ही नहीं वो ब्रह्म को कैसे जाने?</span><br>
<span style="font-size: large;">76. ज्ञान स्वप्न का होते ही,स्वप्न देह मिट जाए जागरुकता वासना की होते ही,जागृत वासना देह से मिट जाए ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><strong>77.</strong> होती है सुषुप्ति तब, जब स्वप्न में वासना का बीज शांत हो जाए ,</span><br>
<span style="font-size: large;"> होती है जीवन में मुक्ति तब, जब जागरुकता में वासना का बीज शांत हो जाए।</span><br>
<span style="font-size: large;">78. न होती कोई जीवन मुक्त की वासना, शुद्ध ब्रह्म ही होती है जीवन मुक्त की वासना।</span><br>
<span style="font-size: large;">79. बुद्धि जिसकी रंगी है वैराग्य के रंग से, वही रंगता है सबको आनंद के रंग से।</span><br>
<span style="font-size: large;">80. जैसी जिसकी भावना, वैसो अनुभव पाए,</span><br>
<span style="font-size: large;"> जो भावना करे शहद में कटुता की, तो कटु रस को वह पाए।</span><br>
<span style="font-size: large;"> जो भावना करे नीम में मधुरता की, तो नीम भी मधुर रस हो जाए।</span><br>
<span style="font-size: large;">81. जिसके ह्रदय में अज्ञान परब्रह्म का, वह अज्ञानी जगत और अहंम रूप को पाए।</span><br>
<span style="font-size: large;">82. चित्त विचारे द्वैत को, तो सब द्वैत मय हो जाए ,</span><br>
<span style="font-size: large;"> और चित्त विचारे अद्वैत को तो सब अद्वैत मय हो जाए।</span><br>
<span style="font-size: large;">83. स्फुरण मात्र से चित्त में व्याधि करे संसार की, बिना श्र म ही ज्ञान औषध करे औषधि यही संसार की।</span><br>
<span style="font-size: large;">84. है जगत की उत्पत्ति मिथ्या, है जगत की वृद्भि भी मिथ्या</span><br>
<span style="font-size: large;"> है जगत की अनुभूति भी मिथ्या , है जगत का लय भी मिथ्या ।</span><br>
<span style="font-size: large;">85. अनुभव करे सुख - दुःख का, जो दृष्टि रखे बाह्य की और, </span><br>
<span style="font-size: large;"> समान समझे सुख- दुःख को जो योगी रहे अंतर्मुख की और।</span><br>
<span style="font-size: large;">85. जो रखे मन की भावना तीव्र वेग, न रोक सके उसे कोई भाव-अभाव का आवेग।</span><br>
<span style="font-size: large;">86. उठे मन में जैसे- जैसे आभास, वैसे ही बाह्य प्रत्यक्ष प्रतिभास,</span><br>
<span style="font-size: large;">87. कंगन है जब तक है सुवर्ण का भान, तब तक न दिखे कंगन का ज्ञान,</span><br>
<span style="font-size: large;"> जैसे होवे कंगन का भान, फिर कैसे रहे सुवर्ण का ध्यान।</span><br>
<span style="font-size: large;">88. मन में रहे दृश्य का भान तब तक रहे जड़ता और अज्ञान, </span><br>
<span style="font-size: large;"> जब मन को होवे सत्य का भान, तब जग जाए ब्रह्म का ज्ञान।</span><br>
<span style="font-size: large;">89.जैसे न रहे पुष्प से सुगंध अभिन्न,वैसे न रहे पुरुष से कर्म अभिन्न,</span><br>
<span style="font-size: large;"> होती है उत्पत्ति दोनों की परमात्मा से, होती है लय दोनो की ही परमात्मा से।</span><br>
<span style="font-size: large;">90. मन करे बाह्य अनुसन्धान, तो कर्मेन्द्रिय प्रवृत्त, जो मन करे अंतर से अनुसन्धान सो कर्मेन्द्रियाँ निवृत्त ।</span><br>
<span style="font-size: large;">91. अवीध्या जगे कलंकपन से, तब संकल्प- विकल्प टकराए,</span><br>
<span style="font-size: large;"> प्रकार अनेक परम संवित धरे, तब वह मन कहलाए ।</span><br>
<span style="font-size: large;">92. संकल्प- विकल्प का जो निर्णय करे, तब परम संवित स्थिर बुद्धि हो जाये,</span><br>
<span style="font-size: large;">93. कारण संसार के बंधन का, जब देह मिथ्या अभिमान करे,</span><br>
<span style="font-size: large;"> कल्पना करे जब खुद की सत्ता से, तब वह अहंकार कहलाए ।</span><br>
<span style="font-size: large;">94. त्याग करे एक विचार का, दूजा विचार का स्मरण करे, </span><br>
<span style="font-size: large;"> जो त्याग-स्मरण के चक्कर में रहे, तब वह चित्त रूप कहलाए।</span><br>
<span style="font-size: large;">95. कर्म</span><br>
<span style="font-size: large;">96. कल्पना</span><br>
<span style="font-size: large;">97. वासना</span><br>
<span style="font-size: large;">98. विद्या</span><br>
<span style="font-size: large;">99. स्मृति</span><br>
<span style="font-size: large;">100. श्रवण करे और स्पर्श करे, दर्शन करे भोजन करे सुगंध करी जो विचार करे, </span><br>
<span style="font-size: large;"> वह जीव भाव कर्मेन्द्रिय से आनंद करे। वह इन्द्रिय कहलाए। </span><br>
<span style="font-size: large;">101, जो सत पदार्थ को असत करे, करे असत को सत</span><br>
<span style="font-size: large;"> जो करे विकल्प मन में असत्ता का और करे सत्ता का मन में भाव।- वह माया कहलाए।</span><br>
<span style="font-size: large;">102. मलीन होता जब चित्त अज्ञान से, तब चित्त ज्ञान से दूर हो जाए, </span><br>
<span style="font-size: large;"> जब भ्रान्ति बढ़े संसार रूपी मन में, तब जगत उत्पन्न हो जाए ।</span><br>
<span style="font-size: large;">103. जो सब प्राणी के भीतर समाए ,जो सब प्राणी के बाहय भी समाए ,</span><br>
<span style="font-size: large;"> जो सत्ता-असत्ता में साक्षी है ,जो सर्व व्याप्त आकाश में है ,वह आकाशो में चिदाकाश है।</span><br>
<span style="font-size: large;">104. जो हर प्राणी का व्यवहार है ,जो कार्य कारण से श्रेष्ठ है ,जो करे कल्पना विस्तृत जगत में</span><br>
<span style="font-size: large;"> वह चित्ताकाश कहलाए।</span><br>
<span style="font-size: large;">105. जो मेघ को आश्रयभूत करे , दशोंदिशा में फेलाए ,अनंत जिसका आकाश हो वह भुताकाश कहलाए।</span><br>
<span style="font-size: large;">106. निश्चय ज्ञानी जन करे , एक परब्रह्म स्वरूप,</span><br>
<span style="font-size: large;"> वर्जित करे हर कल्पना से, उसका नित्यपूर्ण स्वरूप।</span><br>
<span style="font-size: large;">107. बालसहज अज्ञान से खेले दुखदायक खेल, चंचल मन अज्ञान से करे बिन सोच क्रीड़ा का खेल।</span><br>
<span style="font-size: large;">108. प्रमाद जब मन करे बड़े दुःख ही दुःख, मन को वश में जो करे नाश हो जाए सारे दुःख।</span><br>
<span style="font-size: large;">109. उठे ऊर्मि तरंग और कलोल जल में , पर हे सबकुछ जल रूप</span><br>
<span style="font-size: large;"> उठे जो विचार, तरंग और उन्मांद मन में पर हे सबकुछ ब्रहम रूप</span><br>
<span style="font-size: large;">110. जेसे प्रचंड ताप सूर्य का, दिखे मृगमरीचिका समीप,</span><br>
<span style="font-size: large;"> विचित्र रूप से दिखे परमात्मा पर है नाम रूप रहित।</span><br>
<span style="font-size: large;">112. स्वप्न में स्वप्न को देखता हूँ , तो दीखता है केवल स्वप्न,</span><br>
<span style="font-size: large;"> खुली आँख से जगत को देखता हूँ , वो भी दीखता है केवल स्वप्न।</span><br>
<span style="font-size: large;">113. अनुभव स्वप्न का एक पल का, जैसे बिताया जीवन एक कल्प का,</span><br>
<span style="font-size: large;"> सफर स्वप्न में कई जन्मो का, आभास मात्र हे पल दो पल का।</span><br>
<span style="font-size: large;">114. जल ही समुद्र का अंश कहालए, ऊष्णता ही अग्नि का अंश कहलाए,</span><br>
<span style="font-size: large;"> वैसे ही चित्त आडम्बर रूपी संसार का अंश कहलाए।</span><br>
<span style="font-size: large;">115. मोह ,लालसा, अंहकार घृणा , हे मन का ही रूप, मन के यह विकार सारे मन ही मूढ़ता का स्वरूप।</span><br>
<span style="font-size: large;">116. वायु करे आकाश में अभ्रमंडल शुद्ध।</span><br>
<span style="font-size: large;"> अभाव अहमता ममता का करे, चंचल मन को शुद्ध।</span><br>
<span style="font-size: large;">117. उष्णता बिन अग्नि नहीं,</span><br>
<span style="font-size: large;"> चपलता बिना मन नहीं।</span><br>
<span style="font-size: large;">118. स्पन्दन है वायु की सत्ता,</span><br>
<span style="font-size: large;"> चंचलता है चित्त की सत्ता।</span><br>
<span style="font-size: large;">119. चंचलता मन में बसी , तो वो मल रूप कहलाए,</span><br>
<span style="font-size: large;"> स्थिरता अगर मन में बसी, तो वो मोक्षरूप कहलाए।</span><br>
<span style="font-size: large;">120. जो करे मन अनुसन्धान जड़ता का , तो जड़ता की वृद्धि हो जाए,</span><br>
<span style="font-size: large;"> वृद्धि जड़तापन की मन में , बुद्धि विचलित कर जाए।</span><br>
<span style="font-size: large;">121. करे जो मन इच्छा सांसारिक पदार्थ की, वह दुखसागर को जाए,</span><br>
<span style="font-size: large;"> करे जो मन अनिच्छा सांसारिक पदार्थ की, वह सुखसागर को पाए।</span><br>
<span style="font-size: large;">122. करे मोह जो पक्षी अन्न का, बंधन पाए पार्थी की जाल,</span><br>
<span style="font-size: large;"> करे मोह जो मन पदार्थ का, बंधन पाए अविध्या की जाल।</span><br>
<span style="font-size: large;">123. अविध्या न जाने आत्मप्रकाश को, अविध्या न जाने देहादि रूप को,</span><br>
<span style="font-size: large;"> चित्त न जाने अविध्या के रूप को,</span><br>
<span style="font-size: large;"> अहो! फिर भी करे चित्त विश्वास अविध्या के स्वरुप को।</span><br>
<span style="font-size: large;">124. करे सूर्य का उदय अंधकार का नाश , करे विवेक का उदय अविद्या का नाश।</span><br>
<span style="font-size: large;">125. करे जो अभ्यास सदाचार से, उसे ज्ञानी चिंतन कहते हैं।</span><br>
<span style="font-size: large;"> करे जो शास्त्र और सज्जन का समागम, उस चिंतन को वैराग्य कहते हैं ।</span><br>
<span style="font-size: large;">126. कर के चिंतन और शुभेच्छा , जो सूक्ष्मता की और जाए, उस ज्ञानी को इन्द्रियों के अर्थ में अनासक्ति हो</span><br>
<span style="font-size: large;"> जाए।</span><br>
<span style="font-size: large;">127. करे जो अभ्यास शुभेच्छा, विचारना, तनुमानसा का, उसे चित्त में बाहरी विषय का वैराग्य हो जाए,</span><br>
<span style="font-size: large;"> जो ज्ञानी वैराग्य से शुद्ध और सत्य निष्ट हो जाए वह ज्ञानी आत्मा में स्थित हो जाए वह ज्ञानी </span><br>
<span style="font-size: large;"> सत्वपत्ति कहलाए।</span><br>
<span style="font-size: large;">128. जो सत्वपत्ति बाहर और भीतर के ज्ञान से परे हो जाए , वह चित्त असंग भाव से परमात्मा में लीन हो </span><br>
<span style="font-size: large;"> जाए , जो ज्ञानी करे परमानंद भाव रूप का साक्षात्कार वह असन्नशक्ति कहलाए।</span><br>
<span style="font-size: large;">129. करे जो अभ्यास सत्वपत्ति और असन्नशक्ति का , वह पाए अभाव पदार्थ भावना का</span><br>
<span style="font-size: large;">130. जो करे अभ्यास शुभेच्छा विचारना और तनुमानसा का, जो करे अभ्यास सत्वपत्ति असन्नशक्ति और </span><br>
<span style="font-size: large;"> पदार्थ भावना का वह समझे न भेद मात्र जगत को , उसकी सारी निष्ठा एक स्वभाव में आ जाए,</span><br>
<span style="font-size: large;"> वह ज्ञानी तुर्या अवस्था को पा जाए। </span><br>
<span style="font-size: large;">131. जैसे बनती है कुल्हाड़ी पेड़ से और पेड़ कटता है कुल्हाड़ी से, वैसे उठता है विवेक मन से</span><br>
<span style="font-size: large;"> और मन कटता है विवेक से।</span><br>
<span style="font-size: large;">132. न मिले कभी परमात्मा, थोड़े विषय त्याग से, पर मिले तभी अंतरात्मा जब मन सर्व त्याग दे।</span><br>
<span style="font-size: large;">133. त्यागे जो मन सर्व अनात्म वस्तुओं को, शेष रहे वही आत्मा कहलाए।</span><br>
<span style="font-size: large;">134. न भूले कभी वायु अपनी गति को , न भूले कभी तत्ववेता पुरुष निश्चित चैतन्य को।</span><br>
<span style="font-size: large;">135. है उपाय दो चित्त वृत्ति के नाश का, एक है योग दूजा ज्ञान कहलाए।</span><br>
<span style="font-size: large;"> जो रोके चित्त की वृत्ति को वह योग कहलाए, और जो करे अवलोकन सूक्ष्म रूप से वह ज्ञान कहलाए।</span><br>
<span style="font-size: large;">136. जैसे न रहे मृग दावाग्नि की जगह पर , वैसे न रहे सद्गुण रुपी द्वेष चित्त की जगह पर।</span><br>
<span style="font-size: large;">137. जो करे अर्चन उपशम बोध समता के पुष्प से, वही आत्मरूप देवार्चन कहलाए।</span><br>
<span style="font-size: large;"> जो करे केवल आकार का पूजन वह भ्रान्तिरूप देवार्चन कहलाए।</span><br>
<span style="font-size: large;">138. जो करे मन आत्मतत्व का गहरा अभ्यास, वह द्वैत वासना से मुक्त और शांत हो जाए।</span><br>
<span style="font-size: large;"> जो स्वभाव प्राण का मन में एक हो जाए , तब वह प्राण शांत और निर्मल हो जाए।</span><br>
<span style="font-size: large;">139. है यह जगत उपेक्ष्य बोधवान की नज़र में,</span><br>
<span style="font-size: large;"> है यह जगत उपादेय मूढ़ पुरुष की नज़र में,</span><br>
<span style="font-size: large;"> है यह जगत हेय तीव्र वैराग्यवान की नज़र में।</span><br>
<span style="font-size: large;">140. होता है साक्षात्कार उसी शिष्य को , जो सुने गुरूपदेश मनन निधि ध्यान से</span><br>
<span style="font-size: large;"> जब होती है बुद्धि स्वच्छ गुरूपदेश से तब पाता है शिष्य साध्य को गुरूकृपा से।</span><br>
<span style="font-size: large;">141. क्षय हो जाए मन जिस धीर पुरुष का, दिखे केवल परम तत्व उस धीर पुरुष को।</span><br>
<span style="font-size: large;">142. है जब तक इन्द्रियों की वृत्तियों में वासनारूपी विषय रस , तब तक रहे साथ ये संसार और जन्म मरण</span><br>
<span style="font-size: large;"> आदि अनर्थो का रस।</span><br>
<span style="font-size: large;">143. महा धैर्यवान और जितेन्द्रीय ही सच्चा पुरुष कहलाए, जो चले मात्र प्राण आदि पवन से वह मास यन्त्र का</span><br>
<span style="font-size: large;"> समूह केवल कहलाए।</span><br>
<span style="font-size: large;">144. जिसकी मिटी इच्छा विषय से उसने पाई निष्काम मुक्ति विषय से।</span><br>
<span style="font-size: large;">145. सहज स्वभाव है तत्व ज्ञान का स्वरूप, पाया जब खुद को तात्विक स्वरूप, तब शम गया आत्मा में</span><br>
<span style="font-size: large;"> असत्य अहंकार का यह रूप।</span><br>
<span style="font-size: large;">146. जैसे वृक्ष छुपा हे बीज के अन्दर , वैसे साकार जगत छुपा हे आत्मा के अन्दर।</span><br>
<span style="font-size: large;">147. पूजन करे जो अपनी अन्तरात्मा का, शांति और सत्संग के उपहार से, तत्काल पाए वह मोक्ष रूप का ,</span><br>
<span style="font-size: large;"> अपने ही तत्व ज्ञान से।</span><br>
<span style="font-size: large;">148. रखे विवेकी परिचय इतना शास्त्र और सत्संग से, करे उसी का अनुभव स्वप्न में अत्यंत ही अभिनिवेश से।</span><br>
<span style="font-size: large;">149. हे स्वप्न एक मानसिक विकार, बाहर भीतर करता हे जेसे विचार ,उसी संबंध से ले ता है पदार्थ आकार</span><br>
<span style="font-size: large;">150. करे जो भावना " मै " देहादि रूप, नाश हो जाए उसका बल बुद्धि तेज स्वरूप करे जो भावना "मै " </span><br>
<span style="font-size: large;"> चिद्रपादी रूप , उदय हो जाये उसका बल बुद्धि तेजोमय स्वरूप।</span><br>
<div style="text-align: left;">
<div style="text-align: left;">
<span style="font-size: large;">151. है सर्वत्र समान परब्रह्म श्रृष्टि पुर्वकालसे ,है भरपूर अभी भी और रहेगा भरपूर अनंतकाल तक। </span></div>
</div>
<span style="font-size: large;">152.जैसे न छू सके पृथ्वी के रजकण अनंत आकाष को ,वैसे न छू सके सुख-दुःख ज्ञानरूपी तात्विक स्थिरपुरुष को।</span><br>
<span style="font-size: large;"> 153.है तीन सुख और समृद्धि महात्मा और संतन की ,एकांत, निराभिमान और अकिंचन।</span><br>
<span style="font-size: large;">154.जो करे न सम्मान उत्तम शास्त्र के अर्थ का ,न करो मैत्री ऐसै अज्ञानी मत्सर और मोहरूपी पुरुष से।</span><br>
<span style="font-size: large;">155,जो करे मन को स्थिर अचल संकल्प से ,वह आत्मा में विषय सिद्ध हो जाए,</span><br>
<span style="font-size: large;"> फिर सत्य हो या असत्य ,वह भी आत्मा में स्थित हो जाए।</span><br>
<span style="font-size: large;">156.जब दिखे जागृत बाह्य स्वप्न जगत को ,तब इन्द्रियाँ बहिर्मुख हो जाए।</span><br>
<span style="font-size: large;">157.जब तक लकड़ी न धरे आकार कमंडल का ,तबतक परिणाम रूपी जल न धरे आकार कमंडल का,</span><br>
<div style="text-align: left;">
<span style="font-size: large;"> वैसे ही बोध अभ्यास से परम उत्कृष्ट परिणाम न पाए ,तब तक ज्ञान भी चित्त के अन्दर कैसे प्रवेश कर पाए।</span></div>
<span style="font-size: large;">158.समुद्र की तरंग से उछलते हुए जल का, पल में समागम और पल में वियोग हो जाए,</span><br>
<span style="font-size: large;"> वैसे ब्रह्म रूप महा सागर में स्फुर्ण रूप जीवों का पल में समागम और पल में वियोग हो जाए।</span><br>
<span style="font-size: large;">159.अल्प काल अवस्था स्वप्न रूप कहलाए, जो रहे दीर्घ काल अवस्था वो जागृत रूप कहलाए। </span><br>
<span style="font-size: large;">160.है स्वप्न सृष्टि मिथ्या तो भी अनुभव करे जगत का, है द्रश्य प्रपंच भी मिथ्या तो</span><br>
<span style="font-size: large;"> भी आभास करे सत्य जगत का।</span><br>
<span style="font-size: large;">161.है धर्म, ब्रह्म की शक्ति की प्रतीति और उसका ही अभाव, </span><br>
<span style="font-size: large;"> दोनों पाए स्थिति वैसी ही, जैसा उसका प्रभाव।</span><br>
<span style="font-size: large;">162.जैसे निंद्रा के हैं दो रूप- स्वप्न और सुषुप्ति, वैसे ही ब्रह्म के है दो रूप- दृष्टा और द्रश्य रूप।</span><br>
<span style="font-size: large;">163.होता अनुभव संकल्प का जब तक संकल्प नगर में है संकल्प कायम, </span><br>
<span style="font-size: large;"> होता अनुभव जगत का जब तक, संकल्प जगत में है संकल्प कायम।</span><br>
<span style="font-size: large;">164.जब होता है क्षय सर्व वस्तुओं की तृष्णा का, तब मन में तत्व ज्ञान जग जाए, </span><br>
<span style="font-size: large;"> जब तत्व ज्ञान करे बाधित दृश्य को, तब तृष्णा ही समाप्त हो जाए।</span><br>
<span style="font-size: large;">165.जो पाए संपत्ति ज्ञान वैराग्य की, वह मोक्ष रूप कहलाए, </span><br>
<span style="font-size: large;"> फिर न कभी पाए शोक जीवन में, वह अनंत शांति पद स्थित हो जाए।</span><br>
<span style="font-size: large;">166.धारण करे यह जल, पात्रता के स्वरुप को, वैसे धारण करे चैतन्य जीव कर्म फल के स्वरुप को।</span><br>
<span style="font-size: large;">167. आकार पात्र का कैसा भी रहे फिर भी जल शुद्ध कहलाए।</span><br>
<span style="font-size: large;"> वैसे प्रकार कर्म का कैसा भी रहे, फिर भी चैतन्य शुद्ध कहलाए।</span><br>
<span style="font-size: large;">168.जल ठहरा जो एक पात्रमे तो मलिनता से भर जाए,जल बहे जो धरातल पर तो सबको शुद्ध करजाए ।</span><br>
<span style="font-size: large;"> मन ठहरे जो इन्द्रिय विषय में तो मोह वासना में बंध जाए ,मन बहे जो चैतन्य सागर में तो ब्रह्मलीन</span><br>
<span style="font-size: large;"> बनजाए।</span><br>
<span style="font-size: large;">169.पात्र में जल भरने से पात्र जल न कहलाए, शरीर में चैतन्य रहने से भला कैसे चैतन्य शरीर कहलाए।</span><br>
<span style="font-size: large;">170.अलग-अलग पात्र में भरा जल बाहर से जल ही कहलाए, वैसे ही अलग-अलग शरीर में बसा वह चैतन्य बाहर से चैतन्य ही कहलाए।</span><br>
<span style="font-size: large;"> </span><br>
<span style="font-size: large;"> </span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<div dir="rtl" style="text-align: right;">
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</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02317505440579481583noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7018758742599458739.post-20825344559671261342016-07-25T17:21:00.001-07:002016-07-25T17:21:52.505-07:00<span style="-webkit-text-size-adjust: auto; background-color: rgba(255, 255, 255, 0);">જયારે મન મમત્વ છોડીને સર્વસ્વ તરફ વળે છે ત્યારે તેની અંદર માતૃત્વ જાગે છે અને આજ ભાવ સર્વજ્ઞ થઇ જાય ત્યારે તે સંતત્વ તરફ આગળ વધે છે અને સમગ્ર સંસાર માં પ્રેમ ની સુવાસ ફેલાવે છે </span>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02317505440579481583noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7018758742599458739.post-50842745379548084142016-07-10T21:02:00.001-07:002017-11-12T20:28:33.530-08:00<div><span style="-webkit-text-size-adjust: auto; background-color: rgba(255, 255, 255, 0);">છલકાઈ રહ્યું છે હૃદય પ્રેમ ની ઊર્મિઓ થી, વહી રહ્યું છે મન લાગણીઓ ની નરમીઓ થી. ઉમટી પડી છે ભરતી અને ઓટ, ભાવના ના ઘૂંઘવાતા દરિયા માં, અનુભવી રહ્યો છું અંતર ના શાંત દરિયા માં, નિરંતર અંતર ની વેદનાઓ ને. નથી મળતો સાહિલ ને કદી સથવારો, અંતરમન ની અનંતતાનો. જો વધશે આવેગો ના દરિયા માં ભરોસા રૂપી સ્થિરતા, તો તરસે આરોપોના પથ્થર પણ, </span></div><div><span style="-webkit-text-size-adjust: auto; background-color: rgba(255, 255, 255, 0);">પ્રેમ ના પુષ્પ બની ભવસાગર ના દરિયા માં .</span></div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02317505440579481583noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7018758742599458739.post-39228197349110279302016-06-22T20:30:00.001-07:002016-06-22T20:30:32.882-07:00Taza kalamTaza kalam:- Our mind enjoying outer world experience through senses. Our senses manifest feel & perceive every experience through unseen. Eg. Communication,smell,test,even pictures every mode is coming to you from unseen. Even After closing your eyes memory travels to unseen. Every experiment of science is based on unseen.yoga, meditation & spirituality also leads us to unseen, and practicing for cleaning the garbage of seen. We are living in the ocean of unseen but only believing in to seen. !! What a amazing fact !!Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02317505440579481583noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7018758742599458739.post-44008312467204349092016-06-22T18:09:00.001-07:002017-11-12T20:39:49.671-08:00What a amazing factOur mind enjoying outer world experience through senses. Our senses manifest feel & perceive every experience through unseen. Eg. Communication,smell,test,even pictures every mode is coming to you from unseen. After closing your eyes memory travels to unseen. Every experiment of science is based on unseen.yoga, meditation & spirituality also leads us to unseen, and practicing for cleaning the garbage of seen. We are living in the ocean of unseen & only believing in to seen. !! What a amazing fact !!Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02317505440579481583noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7018758742599458739.post-29588781116245513422016-03-07T18:53:00.001-08:002016-03-07T18:53:08.327-08:00Taza kalamTaza kalam :-Is it possible to clean the blackboard with over writing ? Same way is it possible to delete negativities from your mind through your over speech what you perceive from outer world ?Through the words people trying to clean others blackboard ( Mind ) without cleaning their own. To Clean blackboard you need duster & delete negativities you need to do Meditation. Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02317505440579481583noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7018758742599458739.post-28504763405829653352015-10-28T23:29:00.001-07:002015-10-28T23:29:39.398-07:00सोलह संस्कार<div>सोलह संस्कार:- मानव संस्कार वह क्रिया है,जिसके द्वारा धार्मिक,बौद्धिक,शारीरिक,आध्यात्मिक और मानसिक दोषों का निवारण तथा विशेष गुणों की वृद्धि की जाति है । जैसे ज़मीन से निकले हुए रत्न को तरह-तरह की शुद्धि की प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है । फिर उसे सुंदर आकार देकर अलंकृत किया जाता है । जिससे रत्न की सुंदरता बढ़ती है, और वह रत्न मुल्यवान हो जाता है । उसी प्रकार हमारे ऋषि मुनिओने सोलह संस्कार बनाकर जीव को जन्म के साथ मिलि हुइ अशुद्धिओं काे निवारण करने का उपाय ढुंढ निकाला । सारे संस्कारों में उपनयन संस्कार जीव को सुसंस्कृत करता है । जिससे बालक का मन षठ विकारों में न फँसे और जन्म के साथ मिले हुए ध्येय पर बीना अवरोध प्रयाण कर सके ।</div><div>गर्भाधान,पुंसवन,सीमन्तोन्नयन,जातकर्म,नामकरण,निष्क्रमण,अन्नप्राशन,चुडाकरण,कर्णबेध,उपनयन,वेदारंभ,समावर्तन,केशान्त,विवाह,अग्न्याधान,अन्त्येष्टि ।</div><div>गर्भाधान पुंसवन सीमन्तो जातकर्मच ।</div><div>नामक्रिया निष्क्रमणोडन्नाशनं वपन क्रिया ।</div><div>कर्णबेधो व्रतादेशो वेदारम्भ क्रियाविधि:।</div><div>केशान्त: स्नानमुदवाहो विवाहोडग्नि परिग्रह: ।</div><div>गर्भाधान संस्कार :-इस संस्कार में विवाह से तीन दिन तक ब्रह्मचर्य का पालन करना है ।सात्विक भोजन करना है ।और पंडित या पुरोहित को बुलाकर यज्ञ करवाना है ।जिस में अग्निदेव सब दोषों को नष्ट करे,वायुदेव से संतति नाशक दोष,सुर्यदेव से पशुनाशक दोष,चंन्द्रमा से गृह नाशक दोष ओर गंधर्व से यश नाशक दोष दूर करने कि प्रार्थना करते हुए आहुति देनी हैं । जिससे वधु के गर्भ में पल रहे बच्चे की रक्षा होति रहे ।</div><div>पुंसवन संस्कार :- इस संस्कार में स्त्री को वटवृक्ष के शुंग को ठंडे पानी में पिसकर दाँइ नासिका में रस डाले या सुँघाए जिससे वंश की रक्षा होती है ।ओर ये कार्य जब चंन्द्रमां पु संज्ञक नक्षत्र में हो तब करना चाहिए । पुंसवन संस्कार के मंत्रों को पढ़ते हुए यह संस्कार गर्भ के दुसरे या तिसरे महीने में कीया जाता है ।</div><div>सिमन्तोन्ऩनम् संस्कार:- यह संस्कार गर्भवती पत्निके शरीर की शुद्धि द्वारा गर्भस्थ बालक का बीज गर्भ समुद्रीव दोष को नष्ट करने के लिए तथा वीर प्रसव दीर्घायु पुत्र या पुत्री की प्राप्ति हेतु किया जाता है ।यह संस्कार केवल प्रथम गर्भ में छठे या आंठवे मास में जब चंन्द्रमा पुंसज्ञक नक्षत्र पर हो करना चाहीए यह एक ही बार किया जाता है ।इसके करने से जो अद्रश्य रूप से भुत,राक्षसगण,रुधिर प्रिय ओर अलक्ष्मी आदि गर्भवती को स्पर्श नहीं कर सकेंगे ।सौभाग्यलक्ष्मी का गर्भवती में वास होता है,उसके अंग कि और बुद्धि की शुद्धि होती है । बालक बुद्धिमान बलिष्ठ दीर्घजीवी होता है । </div><div>जातकर्म संस्कार :-उत्पन्न होने वाले शिशु के निमित्त कर्म । यह गर्भ में रहते हुए माता के द्वारा भुक्त अन्न जल के रस से पुष्ट बालक के गर्भाम्बु पान आदि दोष को दूर करने के लिए और आयु,मेघा वृद्धि के लिए किया जाता है ।</div><div>नाम कर्ण संस्कार :-जन्म के दश दिन के बाद विधि विधान से राशी और नक्षत्र के अक्षरों के आधार पर नाम करण करना आवश्यक है । </div><div>निष्क्रमण संस्कार:- इसका अर्थ है घर से बाहर निकलना, ताकि शिशु बाह्य जगत से भी परिचित हो सके उन्मुक्त वातावरण में क्रीड़ा कर सके ।इसमें शिशु को चौथे मास में शुभ नक्षत्र को देखकर माता कि गोद से बालक को पिता लेकर घर से बाहर आकर सुर्यदेव के दर्शन कराते है ।और सुर्यदेव का मंत्र बोलते हुए बालक कि दिर्घायु की कामना रखते हुए प्रार्थना करते है ।</div><div>अन्नप्राशन संस्कार :- शिशु के विकास शील देह की आवश्यकतानुसार ठोस आहार की आवश्यकता होती है ।अन्न चटाना,पिता, कीसी गुरुजन या अच्छे व्यक्ति के द्वारा पाँचवे या छठे मास में अन्नप्राशन करवाना चाहीए ।जिससे बालक बुद्धिजीवी बने और शरीर बलिष्ठ बने ।</div><div>चुडाकरण संस्कार :- इस संस्कार र को मुण्डन भी कहते है ।यह त्वचा संबंधी रोगों के लिए लाभकारी है । जन्म के एक वर्ष के अंदर या तीसरे वर्ष में कुल के अनुसार यह संस्कार किया जाता है ।इसमें शुभ दिन और शुभ नक्षत्र देखना आवश्यक है ।</div><div>हारीत कहते है -गर्भाधान से ब्रह्म गर्भ धारण करता है,पुंसवन से पुत्र की उत्पत्ति होती है, फल स्नान कराने से पितृ विर्य जन्म सारे दोष दूर होते है ।तथा माता के रक्त में जो दोष होते है वे दूर होते है ा गर्भाधान से मुण्डन तक के संस्कार गर्भ विर्य जनित दोषों के शान्ति तथा तेजस्विता सदविचार,कर्मनिष्ठा बढ़ाने और दुराचार की निवृत्ति के लिए किये जाते है ।</div><div>कर्णबेध संस्कार :-उपनयन संस्कार से पहले कर्णबेध संस्कार किया जाता है । कहा जाता है कि हमारी सभी नाड़ीयाँ कर्णपर आकर रूकती है ।कर्णबेध ने से नाडीयोँ में संचार होता है, जीसके कारण श्रुति और स्मृति कि क्षमता बढ़ जाती है जो वेदारम्भ और विद्यारंभ संस्कार में उपयोगी होता है ।</div><div>उपनयन संस्कार:- उपनयन संस्कार का ही अपर नाम उपवीत,यज्ञोपवीत,व्रतबंध,ब्रह्मेसुत्रधारण,मौजीबंधन,जनेउ आदि नाम है ।उप समिपे :- गुरु समिप , वेदाध्ययन के लिए गुरु के समिप जिस क्रिया के द्वारा बालक को पहोंचाया जाता है उसे उपनयन संस्कार कहते है । आगे के सभी संस्कार ५ से ९ वर्ष की आयु में हो जाते है उसके बाद ही बालक उपनयन संस्कार का अधिकारी होता है । अगर कोइ संस्कार बाक़ी रह गया है तो एसी स्थिति में प्रायश्चित्त विधि करके उपनयन किया जा सकता है ।उपनयन में वेदमाता गायत्री माँ के मंत्र से बालक के पिता,गुरु,आचार्य या ब्राह्मण द्वारा श्रुति स्मृति के माध्यम से अभीमंत्रीत किया जाता है । जनेउ को धारण करते हुए बालक गायत्री मंत्र का संकल्प लेता है । और संध्या वंदन के द्वारा मंत्र को आत्मसात करता है ।</div><div>पवित्रता पुर्वक पवित्र स्थान पर बैठकर कपास या नरम रुई से सुत का धागा बनाए । ब्राह्मण अथवा जिनको इसका ज्ञान है वही त्रिसुत्री बनावे सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार एक मनुष्य की लंबाइ हम अगर अपने हाथ की चार उँगलीओ से नापे तो ८४ से १०८ अंगुल के बीच होती है । ८४ से १०८ का मध्य ९६ वे होता है । इसलिए जनेउ की लंबाइ भी ९६ वे अंगुल होती है ।</div><div>दुसरा आधार है,गायत्री मंत्र २४ अक्षरों का है और ४ वेद है । २४ को चौगुने करें तो ९६वे होता है तो जनेउ के सुत की लंबाइ ९६वे अंगुल होनी चाहीए ।</div><div>तीसरा आधार है १५ तिथियाँ,४ वेद,३गुण,७ बार,२७ नक्षत्र,३ काल १२ मास इन सभी की संयुक्त संख्या ९६ होती है ।यज्ञोपवीत में सभी निहित है । इसलिए वह ९६ अंगुल का होता है ।</div><div>इस प्रकार निर्मित त्रिसुत्री के प्रत्येक सुत्र में नौं सुत्र होते है । इन सुत्रो में क्रमश नौं देवता :- ओंमकार,अग्नि,नाग,सोम,पितृ,प्रजापति,वायु,यम,सुर्यदेव ये सर्व देवता निवास करते है । और सभी देवता यज्ञोपवीत के माध्यम से अपना गुण प्रदान करते है ।</div><div>उपनयन संस्कार कौन कर सकता है ।</div><div>अगर ५०वर्ष पुर्व के भारत को देखेंगे तो उसवक्त भारत में वर्णाश्रम प्रथा हुआ करती थी ।पुजा,कर्मकांड और वेद पढ़ने वाला ब्राह्मण हुआ करता था ।व्यापार उध्योग से जुड़े हुए लोगों को वैश्य कहा जाता था । समाज की रक्षा करने वाले रक्षक को क्षत्रिय कहते थे ।सफ़ाई कार्य से जुड़े हुए को शुद्र कहते थे । पर वर्तमान स्थिति में देखें तो ब्राह्मण व्यापार करता नझर आ रहा है ।क्षत्रिय पुजापाठ मेंजुडे हुए दीखते है ।क्षुद्र भी व्यापार करने में लगा हुआ है । याने सभी वर्ण के लोग परिस्थिति के आधिन होकर अपने कर्मक्षेत्र को चुनने लगे है ।उसवक्त शुद्र के अलावा बाक़ी तीन वर्ग उपनयन याने जनेउ धारण के अधिकारी थे ।और ब्रह्मवादिनी स्त्रीयों का यज्ञोंपवित वेदाध्यन में अधिकार था । जैसे गार्गी आदि ऋषि पत्नियाँ जनेउ धारण करती थी । पर बाद के कइ टीकाकार जैसे की गोविन्दराज, श्री नारायण ,राघवानंद सभी का मानना था की स्त्रियों के लीए विवाह संस्कार ही यज्ञोपवीत संस्कार है ।</div><div>पर अाज की स्थिति में देखें तो नाहीं वर्णाश्रम रहा है,नाहीं सोलह संस्कार । आधुनिकता की दौड़ में हमारी परंपरा और संस्कारों को हमने पीछे छोड़ दीया है । हमारे समाज में विक्रृतियां बढ़ने का यही मुख्य कारण है ऐसा हमारा मानना है ।</div><div>आज के युग के हिसाब से पुज्यगुरुदेव ने यही संस्कार को बहुत सरल कर दिया है । जो बालक,स्त्री या पुरुष ब्रह्मवादिनी या ब्रह्मज्ञान को इच्छुक है वह यज्ञोंपवित याने उपनयन संस्कार का अधिकारी है ।</div><div>वेदारम्भ या विद्यारंभ संस्कार :- उपनयन संस्कार के बाद इस संस्कार में ब्रह्मचारीओ को आचार्य अपने समिप बीठाकर श्रुति और स्मृति के माध्यम से वेदीकर्म,अग्नि स्थापन,ब्रह्मवरण और हवन कराना सिखाते है ।और चारों वेंदो का अध्ययन भी इसी संस्कार में किया जाता है ।</div><div>समावर्तन संस्कार :-यह संस्कार ब्रह्मचर्याश्रम कि समाप्ति और द्वितीय गृहस्थआश्रम के प्रारंभ कि मध्य कड़ी है । वेदारम्भ संस्कार कि समाप्ति होने पर यह संस्कार किया जाता है ।</div><div>विवाह संस्कार :- आकर्षण और विकर्षण के आधार पर ही सृष्टि का निर्माण होता है । जीव अपने कर्मों के आधार पर पुरुष या स्त्री के रूप में शारीरिक देह धारण करता है ।संसार में सभी को एक दूसरे साथी कि आवश्यकता पड़ती है ।जिससे शेष कि पूर्ति होती है ।नैसर्गिक काम प्रवृति का साधन तथा स्रृष्टि के संवर्धन में वृद्धि एवं सहायक का यह कार्य है ।</div><div>विवाह का कार्य पंचमहाभूत अग्नि,वायु,जल,पृथ्वी और आकाश को साक्षी मानकर दो जीवों का मिलन होता है ।ज्योतिष शास्त्र में दोनो के जन्म समय के वक़्त ग्रहदोष,नाडीदोष और गणदोष नहीं है वह दोनों कि कुंडली के माध्यम से देखा जाता है ।जिससे उनके वैवाहिक जीवन मेंकोइ बाधा न आए और एक दूसरे के प्रति प्रेमभाव रखते हुए जीम्मेंवारी निभा सके ।</div><div>ब्रह्मचर्याश्रम से दूसरे आश्रम में यदि व्यक्ति नहीं जाता है तो वह प्रायश्चित्त का भागी होता है ।इसका कारण यह है कि वयस्क होनेपर काम वेदना स्वतः स्फुरित हो जाती है । सांसारिक जिवन में जिसकी शांती स्त्री परिग्रह से ही होसकती है ।अन्यथा काम वासना में परवश होकर प्राणी इधर-उधर भटकता हुआ कुल समाज से अनपेक्षित गर्त से गिरेगा और अशान्त रहकर अनुचित तथा अमर्यादित कार्य करता रहेगा । विवाह संस्कार पंडीत या पुरोहित को बुलाकर विधिवत षोडषोपचार के साथ अग्नि कि साक्षी में हस्तमेलाप के समय को ध्यान में रखते हुए कीया जाता है ।</div><div>अग्नि संस्कार:- जब जीव का शरीर के साथ संबंध पुरा होजाता है तब वह शरीर को त्याग देता है । शरीर में प्राणतत्व का अभाव होने से व्यक्ति मृत हो जाता है ।ऐसे पार्थिव शरीर को अग्नि संस्कार के द्वारा पंचभुत में विलीन करते है । </div><div>अंन्त्येष्टी संस्कार :- अन्त्य+इषक्तिन्</div><div>जीव जब शरीर को छोड़ता है उसवक्त जीव के अंन्तःकरण में कुछ अतृप्त वासना रुपी इच्छा रह जाती है । ऐसी अतृप्त इच्छा अपने उत्तराधिकारी द्वारा पुरी करने कि विधि को अंन्त्येष्टी संस्कार कहते है । जीव को शरीर छोड़ते समय कौनसी ज्ञानेन्द्रिय कि इच्छा कौनसी कर्मेन्द्रियँ में अतृप्त रूप में छीपी हुइ है वह ज्ञात नहीं होता ।</div><div>इस संस्कार में चावल ओर जल से भाँत बनाकर उस भाँत का अलग अलग कर्मेन्द्रियँ के नाम का पींड बनाते है, फीर उसे पाँच भाग में बाँटकर जीव का आवाहन करके उसकी अतृप्त इच्छा को उस पींड में स्थापित करते है । आख़ीर में उस पींड का तर्पण करते हुए जल में प्रवाहित करते है ।</div><div>अंन्त्येष्टी संस्कार के द्वारा जीव को पीछले जन्म के कर्मों से मुक्त होता है और मोक्ष या नये जन्म कि तरफ़ प्रयाण करता है ।</div><div><br></div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02317505440579481583noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7018758742599458739.post-75629197292274133152015-09-25T22:34:00.001-07:002015-09-25T22:34:57.498-07:00River stoneAre you a flowing water or a river stone ? River stone believe that he is floating with water but in reality he is stuck-up with land because of his weight. Our mind is like a flowing water but the weight of past bondage makes him a river stone, who enjoy the flow but not able to move or float with present movement Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02317505440579481583noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7018758742599458739.post-15728332404702919192015-09-01T22:27:00.001-07:002015-10-11T17:31:18.712-07:00Conversation between Mind & Heart<div>I don't get according to my expectation even after blessings ? Why ? Eg.if a small child want big bunch of gas baluns & you give it then little boy may be flew away with it </div><div>So you gave only 2 to 3 baluns to the child because you know the capacity of Child to hold it. Same way guru knows your capacity to receive what you want. </div><div> If you use words intelligently with cool mind then words create bridge to heart. But self praising, arrogance & negative words create distance & destruction in relation </div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02317505440579481583noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7018758742599458739.post-43045904919205923582015-08-21T05:33:00.001-07:002015-09-18T23:57:48.335-07:00Santजैसे समुद्र में भटकी हुइ दीशाहिन नाव को एक षढ हवा के थपेड़ों को सहते हुए दीशा निर्देश करता रहता है, वैसे ही सत्य के मार्ग से भटके हुए लोगों को षढरुपि संत विपरीत परीस्थितिओ को सहते हुए मार्गदर्शन करता रहता हैं ।<div>बीना अहंकार दिखाए सब के अहंकार को जो पीसके वही संत कहलाए ।</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02317505440579481583noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7018758742599458739.post-45706311051955381002015-01-15T19:25:00.000-08:002015-09-18T04:56:37.916-07:00sansar meri nazar se<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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जिसके भीतर पूरे जगत का सार हैं उसका नाम है संसार ।संसार में हर जीव उसके विरोधाभासी स्वभाव के कारण चलायमान है । अगर संसार में विरोधाभास न होता तो सबकुछ स्थिर हो जाता। जब यह विरोधाभास मूल्यों के बीच आकर्षण होता है तब वह सृजनात्मक रुप लेता हैं। और जब उसमें अवरोध</div>
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खड़ा होता है तब वह विनाश का रूप धारण करता है। इस तरह विज्ञान के नियम के अनुसार आकर्षण और विकर्षण के बीच जीव आधारभूत है। यदि यह विरोधाभास मूल्यों के बीच सन्तुलन बनाए रखतां तब जीवन में प्रगति होती है यही सन्तुलन जब टूटता है तब घर्षण पैदा होता है और जीवन में संघर्ष बढ़ जाता है । इसका अनुभव हम संबंधों के रूप में करते रहते हैं । यह सृष्टि जिन पांच तत्वों से बनी है वे भी एक दूसरे के विरोधाभासी एवम पूरक है । हम सब इन्हीं पंचतत्वो से बने हुए हैं, यही कारण है कि हम सभी में इन्हीं पंचतत्वों का स्वभाव विद्यमान है । पृथ्वी हमें स्थिरता और चुम्बकीय शक्ति प्रदान करती है । वायु हमारे भीतर चंचलता पैदा करती है। अग्नि हमारे अंदर ऊष्णता बढ़ाती है । जल हमारे भीतर ठंडक बनाए रखता है । ये सब हमारे भीतर के आकाश तत्व की वजह से संभव है । इन्ही पंचतत्वों का स्वभाव हमारे जीवन में पूरकता पैदा करता है,जिससे जीवन के हर कार्य को गतिशीलता मिलती हैं। पाँचों तत्वों के मिश्रण से प्राणतत्व बढ़ता है, यह प्राणत्तत्व त्रिगुणात्मक रूप में पुरे ब्रह्मांड में व्याप्त है ।जिसे हम सत्व रजस और तमस गुण के नाम से जानते हैं ।अपने मन को कार्यरत रखने के लिए रजस उर्जा की ज़रूरत पड़ती है ।मन को शांत और एकाग्र करने के लिए सत्वगुण की जरुरत होती है । और जब इसी प्राणत्तत्व अर्थात उर्जा की कमी हो जाती है तब तमस गुण हमपर हावी हो जाता है, जो मन को आलस्य क्रोध और नकारात्मकता की ओर ले जाता है । इस तरह जब प्राणत्तत्व का यह त्रिगुणात्मक स्वभाव कम या ज़्यादा होता है तो उसका सीधा असर हमारे मन,व्यवहार और भावना पर होता है ।जैसे एक झुठ छिपाने के लिए सौ झुठ बोलने पड़ ते हैं उसी तरह असंतुलित मन से लिए हुए निर्णय को सही साबित करने के लिए मन ज़्यादा उलझता रहता है और अहंकार और स्मृति की बैसाखी के सहारे नएनए प्रपंच रचता रहता है ।</div>
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जैसे मकड़ी अपनी ही जीह्वा से तंतु नीकाल कर जाल बुनती है,और जीव-जंतुओको अपने जाल में फँसाती रहती है और ख़ुद भी उसी जाल के मध्य में फँसीं रहती है ।उसी तरह मनुष्य भी अपने मन में प्रपंच रुपी तंतु बुनता है और फिर यह जाल पुरे संसार में फैलाता है, ख़ुद भी उस मायाजाल में फँसा रहता है ।</div>
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संतुलित मात्रा में बनीहुइ हरचीज अमृत के समान है ।जैसे भोजन में सही मात्रा में नमक व्यंजन को स्वादिष्ट बनाता है । पर ज़्यादा या कम नमक व्यंजन के स्वाद को बीगा़ड़ देता है । उसी तरह सांसारिक जीवन में व्यक्ति का व्यवहार अगर ठीक न रहे और बह किसी एक वासना के सुख के पीछे भागता रहे तो वह सांसारिक जीवन को अस्त-व्यस्त कर देता है ।</div>
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हर व्यक्ति अपने पिछले जन्म के संस्कार,जन्म के साथ मिलीहुई परिस्थिति,मनमें ख़ुद की पसंद से उठे हुए विचारों के आधार पर आदर्श व्यक्ति की कल्पना करता है । ऐसे काल्पनिक व्यक्ति की खोज वह जीव भर करता रहता है ।फिर आशा और निराशा के भँवर में फँसकर प्रेम की नई-नई व्याख्या रचता रहता है ।वह अपना सर्वस्व यातो कीसी पर लुटा देता है ।या फिर किसी का सर्वस्व लुट लेता है । इस तरह वह अनेक वेदना ओर संवेदना के सहारे अपने जीवन को धकेलता रहता है ।</div>
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संसार अर्थात एक व्यक्ति का दुसरे व्यक्ति के साथ मानसिक,शारीरिक और व्यावहारिक मूल्यों,वस्तुओं,भावनाओं और गुणों का आदान प्रदान ।जीसका आधार संबंधों की निकटता और दूरी पर निर्भर है ।</div>
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संबंधों का मूल आधार तो निःस्वार्थ भाव और प्रेम है ।किन्तु यह आधार मन ने अपनी इच्छापूर्ति के लिए और अपनी ईन्द्रियों की वासना की भूख को तृप्त करने के लिए स्वार्थ को सौंप दिया है । इस कारण मन हर संबंध में सामने वाले से कुछ पाने के भाव के साथ आदान-प्रदान का मूल्य तय करता है । इस तरह संबंधों का भी व्यावसायिकरण करदिया है ।</div>
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हर संबंध का आधार प्रेम है । हर व्यक्ति का प्रेम जताने का तरीक़ा अलग-अलग होता है ।कई लोग अपना प्रेम दर्शाने हेतु भावनाओं का अतिरेक करते है ,तो कई लोग अपने ही मन में प्रेम के ताने-बाने बुनते रहते हैं और ख़ुद की कल्पना को सच मानकर सामने वाले से उसको समझ ने की अपेक्षा भी रखते हैं ।</div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">ईन्हीं कारणों से लोग हमेशा कहते आए हैं "मुझे आजतक कोइ समझ नहीं पाया "</div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> जब व्यक्ति के नाम मात्र से मनमें तरंगें उठने लगे,सोईहुुई ऊर्मियां जगने लगे और शरीर में प्राण का संचार होने लगे तब समझना चाहिए कि आप उस व्यक्ति से प्रेम करने लगे हैं । प्रेम के संबंध का कोई नाम नहीं होता । एेसे संबंधों काे नाम देकर हम उसे सीमित कर देते हैं ।संबंधों के नाम के साथ अपेक्षा जुड़ती है,अधिकार जुड़ता है और लगाव के साथ स्वामित्व का भाव जुड़ता है । फिर हम उस व्यक्ति पर अधिकार जताने लगते है । जैसे ही संबंधों में अधिकार का भाव पैदा होता है वैसे ही संबंधों में प्रेम के स्थान पर घृणा पैदा हो जाती है ।</div>
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मेरे मतानुसार यदि हमें संबंधों को बनाए रखना है तो जिस तरह हर व्यक्ति का नाम उसकी पहचान बताता है उसी तरह हम संबंधों के नाम को भी पहचान तक सीमित रखेंगें तो व्यक्ति के व्यक्तित्व की पहचान होंगी । यदि हम हर व्यक्ति के व्यक्तित्व की क़द्र करेंगे तो एक दूसरे के विकास में सहायक होंगे ।और एक-दूसरे को छोटा बड़ा दिखाने की स्पर्धा से मुक्त होंगे ।</div>
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जिस प्रकार सागर में विष और अमृत दोनों ही विद्यमान है पर उन्हे सागर मंथन द्वारा एक दूसरे से अलग कर सकते हैं । उसी प्रकार संसार रूपी सागर में गुण-दोष रूपी षट् विकार दोनों हीं समाए हुए है । पर ज्ञानरूपी मंथन से षट दोष को दूर करके हम अपने भीतर सदगुण बढ़ा सकते हैं । </div>
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अगर हम संबंधों के बारे में बात करें तो पूज्य गुरुदेव ने पति और पत्नी के संबंधों की छोटी सी व्याख्या में सब कुछ कहदिया है ।पति और पत्नी के संबंधों को अच्छी तरह बनाए रखने के लिए गुरुजी कहते हैं कि हर पत्नी को अपने पति के अहंकार को संभालना चाहिए और हर पति को अपनी पत्नी की भावनाओं का ध्यान रखना चाहीए । </div>
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पढ़ने-सुनने में यह बहुत सरल व्याख्या है,पर उसमें पतिऔर पत्नी के जीवन का पूरा सार छिपा हुआ है ।इसे समझ ने के लिए हम स्त्री और पुरुष के स्वाभाविक स्वभाव पर बात करेंगे । </div>
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हर पुरुष अपनी ख़ुमारी दिखाने के लिए अहंकार का सहारा लेता हे ।और अपने पुरुषत्व को दुसरें से अधिक दिखाने की चेष्टा करता रहता है । फिर ऐसे दिखावे के लिए वह किसी भी सीमा को पार कर जाता है ।पत्नी अपने पति के अहंकार को अधिकतर ठेस पहुँचाती रहती है और उसके अहंकार रुपी आग में घी डालने का काम करती रहती है । जिसकी वजह से पति और पत्नी के बीच अंतर बढ़ता जाता है ।</div>
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स्त्री का गहना लज्जा है और उसे अपनी सुंदरता दर्शाना पसंद है ।स्त्री का गहना लज्जा है । वह भावुक स्वभाव की होती है । उसे अपनी सुंदरता दर्शाना पसंद है और अपने सौंदर्य की प्रशंसा सुनना अच्छा लगता है । वह जल्दीही दुसरों की बातों में आकर भावना के भँवर में फँस जाती है । और दूसरों को इस भावना के भँवर में फँसा भी सकती है । स्त्री अपने माता-पिता के साथ भावुकता से जुड़ी रहती है । अगर कोइ पति अपनी पत्नी के माता-पिता के विषय में कुछ भी बुरा-भला कहता है तब दोनों के बीच युद्ध की स्थिती उत्पन्न हो जाती है ।इसलिए गुरुजी कहते हैं कि अगर पति अपनी पत्नी की भावनाओं का ध्यान रखेगा तो उसका जीवन सुखमय बन जाएगा । </div>
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जिन संबंधों में संबंध के प्रति अधिकार का भाव जुड़ता है वहाँ उसके साथ विकार भी जुड़ जाता है । जैसे कि माता और पुत्र के संबंध में मोह, पति और पत्नी के बीच अहंकार, भाई और बहन के बीच ईर्षा पीता और पुत्र के बीच लालच । अगर संबंधों में हम अधिकार और स्वामित्व का भाव रखते हुए एक दूसरे पर हक़ जताएँगे तो मन षट विकार में जरुर फँसेगा ।यदि हम संबंधों के नाम का उपयोग केवल पहचान तक सीमित रखेंगे तो हमारा हर व्यक्ति के साथ प्रेमभाव बना रहेगा । वसुधैवकुटुंबुकम के भाव के साथ सबको साथ लेकर हम आगे बढ़ सकेंगे ।</div>
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हर व्यक्ति की पहचान उसके व्यक्तित्व से होती है । उसका व्यक्तित्व समाज के लोगों के साथ किए गए व्यवहार से बनता है । अगर व्यवहार अच्छा तो व्यक्तित्व अच्छा,व्यवहार बुरा तो व्यक्तित्व बुरा । यहाँ पर स्वार्थ नाम का विकार अपना बहुत अच्छा किरदार निभाता है । चाणक्य ने बड़ी अच्छी बात कही है कि सत्य की रक्षा का युद्ध कहीं स्वार्थ की रक्षा का युद्ध न हो जाए । कईबार हम सत्य की आड़ में अपने स्वार्थ की सीमा बढ़ाते रहते है ।</div>
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इस विषय में एक कहावत है । ज़रुरत पड़ने पर गधे को भी बाप बनाना पड़ता है ।सामने वाले व्यक्ति का व्यक्तित्व भले ही गधेजैसा हो पर उसको अपने बाप की तरह सम्मान देना पड़ता है । क्योंकि अभी उस व्यक्ति के साथ हमारा स्वार्थ जुड़ा हुआ है ।और हमें उससे अपना काम करवाना है ।</div>
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समाज में संबंधों का आधार व्यक्ति के प्रति बनी हुई पूर्वधारणा के कारण देखने को मीलता है ।हर व्यक्ति दुसरे व्यक्ति के लिए उस व्यक्ति के साथ के भूतकाल के अनुभवों के कारण,फिर दूसरों से और समाज के किसी समुदाय से उस व्यक्ति के बारे में सुनकर अपने मन में पूर्वग्रह बनाते हैं ।फिर ऐसी पूर्वधारणाओं का सहारा लेते हुए संबंधों की नींव रखते है । जब ऐसी काल्पनिक पूर्वधारणा टूटती हैं ।तब संबंधों में दरार पैदा हो जाती है और मन एेसे व्यक्ति से पुनः कभी भी नहीं मिलने का निश्चय कर लेता है ।</div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">मन ऐसे ही वीचारों और पूर्वधारणाओं में फँसता रहता है ।वह वर्तमान स्थिति में न रहकर शंका और कुशंकाओं के जाल में उलझकर मजबूर होकर जीने के लिए प्रपंच रचता रहता है ।और ख़ुद के ही अस्तित्व और व्यक्तित्व से दूर हो जाता है ।</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">जिस प्रकार चाय को मधुर और स्वादिष्ट बनाने के लिए सम मात्रा में दुध और पानी उबाल कर उसमें निश्चित मात्रा में चाय,चीनी और अदरक डालकर बनाएँगे, पर छन्नी से उसे छानेंगे नहीं तो चाय मधुर होने के उपरांत भी पीने योग्य नहीं होगी ।उसी प्रकार हमें संबंधों मेंमधुरता और प्रेम बढ़ाना हो लेकिन उसे समझदारी और वास्तविकता की छन्नी से छानेंगे नहीं तो संबंधों में कटुता और असुरक्षितता का भाव उत्पन्न होगा ।</div>
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मेरे मतानुसार हर संबंध का नाम उसकी मर्यादा और उस के प्रति आदर के भाव को जगाता है । जब भी हमारा मन भावनाओं में बहने लगे या विकारों में फँसने लगे तब ऐसी परिस्थिति में यही नाम अपनी मर्यादा दिखाता है और हमें ग़लत काम करने से रोकता है ।दोनों व्यक्ति उस वक्त एक दूसरे के प्रति आदर भाव बनाए रखते हैं । जब हमारी ईन्द्रियों में वासना की भूख जगती है तब मन ऐसी मर्यादाओं का उल्लंघन करने के लिए तैयार हो जाता है । और उसे पाने की हवस मन में जग जाती है ।</div>
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अगर बाल्यावस्था में ही व्यक्ति मन में संस्कार रूपी बीज का सही सिंचन कीया जाए तो बड़ा होकर वह व्यक्ति विकट परिस्थिति में भी अडिग रहेंगा और अपनी भावनाओं और वासनाओ के प्रवाह को मन में ही रोककर उसपर विजय प्राप्त करेगा ।</div>
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संस्कार से संबंधों में विश्वास जगता है । विश्वास से संबंधों में प्रेम भाव बढ़ता है । यही भावना व्यक्ति को अति निकट ले जाती है । परंतु जब निकटता में संयम नहीं रहता है तो वासना के प्रवाह का बंध टुट जाता है । फिर यही संबंध विक्रृत संबंध बनकर रह जाता है ।एेसे संबंधों को समाज से छुपाने के लिए व्यक्ति झुठ और क्रोध का सहारा लेता है ।और संसार के मायाजाल में ज़्यादा ही उलझता जाता है ।</div>
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समाज यानि कोई एक प्रकार की मानसिक ग्रंथि से पीडित लोगों का समुह । जो निर्बल व्यक्ति को ज़्यादा निर्बल बनाता है,और सामान्य व्यक्ति की प्रशंसा करके उसके उत्साह के साथ उसके अहंकार को बढ़ाने का कार्य करता है ।</div>
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अगर समाज को दिशा निर्देशित करने के लिए अच्छे व्यक्तित्व वाला नेता मिलता है तो यही समाज बहुत अच्छे कार्य करता है ।पर दिशा निर्देश ग़लत व्यक्तित्व वाले के हाथ में जाता है तो वह पूरे समाज को अधोगति की ओर ले जाता है ।</div>
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संबंध यानि दूसरी व्यक्ति के लिए अंतरमन की भावना ।मुझे अपनी आशीर्वाद यात्रा के दौरान का एक अनुभव याद आ रहा है । मैं जब मध्यप्रदेश के एक गाँव में आशीर्वाद देने हेतु गयाहुआ था तब वहाँ एक संयुक्त परिवार वाले घर में हमारे भोजन की व्यवस्था की गई थी । उस परिवार में लगभग २५ से ३० सदस्य थे । भोजन के पश्यात घर का हर सदस्य आशीर्वाद लेने हेतु मुझ से अकेले मिलने आया । पहले घर की स्त्रियाँ आई मैंने ग़ौर किया कि हर स्त्री ने आशीर्वाद अपने माँ पिता,पति,भाइ,देवर और पुत्र -पुत्री के लिए माँगा,ज़बकि घर के पुरुष वर्ग ने ख़ुद के लिए और ख़ुद के स्वास्थ्य के लिए आशीर्वाद माँगा ।घर के बच्चों से फीर पता चला कि <span style="font-family: 'Helvetica Neue Light', HelveticaNeue-Light, helvetica, arial, sans-serif;">यही पुरुष वर्ग अपने क्रोध और अहंकार के कारण घर की स्त्रीयों पर अत्याचार भी करता था ।यह स्त्री का संस्कार ही है जो अत्याचार को सहते हुए सहनशीलता को धैर्यता पूर्वक बनाए रखती है । शायद इसी वजह से धैर्य सीखाने </span></div>
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वाली माँ को प्रथम गुरु कहा गया है ।</div>
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स्त्री का सहज स्वभाव सहनशिलता,त्याग,धैर्य और प्रेम है ।परंतु विक्रृत भाव मोह,लालच,स्वार्थ और ईर्ष्या जब उस पर हावी हो जाता है तब शांत मन से भी वह बड़े प्रपंच रचने की क्षमता रखती है ।</div>
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पुरुष का स्वभाव अपना आत्म सम्मान संभालना,ख़ुमारी के साथ जीना और भोलेपन में रहना है । मज़े की बात यह है कि पुरुष के आगरूपी स्वाभिमान को अगर कोई स्त्री थोड़ी सी हवा दे तो तुरंत ही उस पुरुष का स्वाभिमान अभिमान में बदल जाता है,और क्रोध का स्वरूप ले लेता है ।पुरुष में धैर्य की कमी होती है जिसके कारण वह क्रोध और अहंकार में फँसता रहता है ।दूसरो के मन को ठेस पहुँचाते हुए संबंधों में दरार बढ़ाता जाता है ।</div>
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जैसे चने के छिलके में बिना चने के भी कड़ापन बना रहता है ।चने के छिलके कि तरह कई पुरुष के अंदर बिना ताक़त भी अकड़ बनी रहती है ।स्त्री को अपनी सुंदरता का अभिमान होता है ।अगर किसी पुरुष ने उसकी ओर नहीं देखा <span style="font-family: 'Helvetica Neue Light', HelveticaNeue-Light, helvetica, arial, sans-serif;">या तारीफ़ नहीं की,तो भी स्त्री नाराज़ हो जाती है, और किसी ने तारीफ़ करदी तो भी परेशान होते हुए शंका करने लगती है ।</span></div>
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जिस तरह एक मोर मोरनी को आकर्षित करने के लिए विभिन्न कलाएँ करते रहता है वैसे ही पुरुष भी स्त्री के सामने आते ही उसको अपनी ओर आकर्षित करने के लिए अनेक नौटंकी करता रहता है ।उसी तरह स्त्री भी अपनी पसंद के व्यक्ति को आकर्षित करने हेतु अनेक हथकंडे अपनाती है ।स्त्री अधिकतर चातुर्य और भावना से पुरुष को वश में करने की कोशिश किया करती है । स्त्री में भाव के अनुरूप अपनी आवाज़ बदलने की अदभुत क्षमता होती है जिसके द्वारा वह क्रोधित और नाराज़ पुरुष को भी अपने वश में ला सकती है ।पुरुष अपनी ताक़त से स्त्री को अपने वश में करने की कोशिश करता रहता है ।</div>
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एक बड़ा पेड़ प्रकृति की हर मुश्किल परिस्थितियों का सामना करते हुए अपनी मज़बूती के बल पर खड़ा रहता है । पर अमरबेल जैसी पतली-सी बेल उस पर गिरने पर वह पेड़ धीरे-धीरे ख़त्म हो जाता है ।</div>
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संसार के मायाजाल में अभिमान रुपी तंतु से बँधे हुए व्यक्ति को अगर मुक्त होना है तो एक दूसरे को वश में लेने की दौड़ में से निकलकर श्रद्धा और विश्वास के द्वारा आंतरिक सबंधो को मज़बूत करना जरुरी है ।कुछ देकर कुछ लेने की अपेक्षा से बने हुए संबंध मर्यादित है । परंतु एकबार किसी से मिलने के बाद बारंवार मिलने का भाव जब मन में जगे तो वह ह्रदय के संबंध होते है जिसमें स्वार्थ और वासना नहीं होती है ।</div>
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अनुभव करना मन का स्वभाव है और अनुभूति होना वह ह्रदय का स्वभाव है ।अनुभव के साथ व्यवहार जुड़ा हुआ है,अनुभूति के साथ अहसास जुड़ा हुआ है ।इसलिए प्रेम अनुभव से नहीं बढ़ता है प्रेम की अनुभूति तो ह्रदय में आनंद की उर्मियों को जगाती है ।अनुभव व्यावहारिक लेन-देन से होता है,पर अनुभूति व्यक्ति की उपस्थिति से ही होती है ।कई बार स्त्री को व्यक्ति की उपस्थिति से पता चल जाता है कि वह उस व्यक्ति के साथ सुरक्षित है या असुरक्षित ।स्त्री को भावुक होने के कारण यह गुण भी सहजता से मिला हुआ है । अगर हमलोग थोड़ी सजगता से देखें तो हर व्यक्ति की उपस्थिति उसका अलग-अलग स्वभाव व्यक्त करती है । अगर हम अपनेआप से जुड़े रहेंगे तो इस अनुभूति का आनंद उठा सकेंगे । अगर हम मन की तरंगों में और प्रपंचों में फँसे तो हमें ख़ुद की उपस्थिति का भी भान नहीं रहेगा ।</div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">यही कारण है कि जीवन में वर्तमान क्षण में रहना जरुरी है। परिस्थिति और मुश्किलें टाल ने से दूर नहीं होती,पर वर्तमान स्थिति में रहकर उसका सामना करने से उसपर विजय ज़रुर प्राप्त कर सकते है ।</div>
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एक ही पेड़ पर लगे हुए फल का आकार और स्वाद अलग अलग होता है ।उसी तरह एक ही परिवार में रहते हुए लोगों का स्वभाव और व्यक्तित्व भी अलग -अलग होता है । फल परिपक्व होते ही पेड़ को छोड़ देते हैं, ठीक वैसे ही कर्म भी परिपक्व होते ही व्यक्ति को छोड़ देते हैं ।पेड़ पर फलों का लगने का क्रम निरन्तर चलता रहता है,ठीक वैसे ही व्यक्ति के मन में उठे हुए संकल्प के साथ कर्म के जुड़ने का क्रम भी जारी रहता है । जैसे फल में से बीज निकलते है और इसी बीज में से बड़ा पेड़ बनता है,वैसे ही हमारे संकल्प मात्र से हमारी ईन्द्रियाँ नए कर्म के साथ जुड़ती है और इन्हीं ईन्द्रियों में फँसा मन एक कर्म करते-करते अनेक संकल्पों के साथ जुड़ता जाता है ।इस तरह संकल्प,कर्म और कार्य का चक्र निरंतर चलता रहता है ।हमारे संबंधों की श्रृंखला भी कर्मों की श्रृंखला बनकर कई जन्मों तक अलग-अलग रुप और रंग लेकर जुड़ती रहती है । हर कर्म की समय मर्यादा उसके संकल्प के वक़्त उसको पाने के लिए मन में उठी हुई तीव्रता के आधार पर निर्भर रहती है ।</div>
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विविधता यह समष्टि का स्वभाव है ।इसी वजह से प्रक्रृति की गोद में अनेक प्रकार के जीव अपनी विशिष्ट लाक्षणिकता और गुण लेकर धरातल पर अपना अस्तित्व टिकाए हुए हैं ।ऐसी विविधता से भरी हुई लाक्षणिकता और गुणों से समग्र संसार में अपनी सुवास फैलाते रहते हैं । इसी विविधता और सुंदरता को प्राप्त करने के लिए मन आकर्षित होता है । गुरुजी कहते है मनुष्य के अलावा हर जीव केवल प्रारब्ध से प्रक्रुति के साथ जुड़े हुए हैं क्योंकि उनके पास मनुष्य की तरह स्वतंत्र मन नहीं है ।मनुष्य को प्रारब्ध के साथ पुरुषार्थ भी करना पड़ता है ।हर मनुष्य अपनी बुद्धि और क्षमता के आधार पर पुरुषार्थ करके अपने जीवन में ज़्यादा से ज़्यादा सुविधाओं को बढ़ाने की दौड़ में लगा हुआ है । परंतु स्वतंत्र मन के कारण कईबार पुरुषार्थ के नाम पर प्रक्रुति के विरुद्ध कार्य भी कर बैठता है । ऐसे किए गए कार्य से भी संसार अधोगति की ओर जाता है ।</div>
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संसार में हम सब एक जीव के रुप में अल-अलग योनि से गुज़रते हुए आए हैं ।हर योनिमें हमलोग तीन सुख भोगते आए हैं ।नींद,भुख और शारीरिक काम वासना ये तीनों सुखों को भोगने के संस्कार हमारी चेतना में स्मृति के रूप में गहराई में पड़े हुए है ।जब हम मनुष्य योनि में आते हैं तब बाल्यावस्था में हम नींद और भूख का अनुभव कर लेते हैं ।पर शारीरिक काम वासना हमारे भीतर युवावस्था में ही जाग्रृत होती है ।उस सुख का अनुभव हमें जन्मों से होने के कारण और युवावस्था में उसके प्रति अज्ञान के कारण उसके वेग को हम समझ नहीं पाते हैं ।युवावस्था में आते ही हमारे भीतर स्त्री को पुरुष की तरफ़ और पुरुष को स्त्री की तरफ़ देखने का नज़रीया बदल जाता है ।एक कहावत हम सुनते आए हैं कि " जब बेटी बड़ी हो जाती है तो आस-पास के लोगों को पहले पता चल जाता है "</div>
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इस कहावत में समाज के अच्छे चेहरे के पीछे के विक्रृत नज़रिये को दर्शाया गया है । पर मुझे इसमें समाज की अर्द्धनग्नता दिखाई देती है ।समाज में अच्छे व्यक्तित्व का मुखौटा पहने हुए लोग अपने संबंधों की आड़ में अपना अधिकार जताते हुए युवावस्था में क़दम रखते हुए लोगों पर बल से या छल से अपनी काम वासना का शिकार बनाते हैं ।उससे पीड़ित व्यक्ति इस तरह के शोषण को या बलात्कार को न तो किसीको बता पाते है और न ही उसे छुपा पाते हैं । उस पीड़ित व्यक्ति के स्म्रृति पटल पर गहरी चोट लगती है ।पर समाज में अपनी बदनामी के डर से एेसी वेदनाओं को अपने में ही समेट कर रखते हैं ।और अन्जाने में ही समाज के ऐसे विक्रृत लोगों का बचाव करते रहते हैं ।संसार में ऐसे विक्रृत मन वाले लोग मनुष्य रुप में पशु समाज को कलंकित करते आए है । और समाज भी झुठे आडंबरों को बचाने के लिए उसे अपने पहलु में छुपाता आया है ।</div>
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एक पतंगे का आकर्षण प्रकाश है और पुरुष का आकर्षण स्त्री है । प्रकाश अपने तेज़ से पतंगे को आकर्षित करता है और स्त्री अपने सौंदर्य से पुरुष को आकर्षित करती है । जब हमारे भीतर ऊर्जा की कमी होती है तब यह मन बाहरी सुख की ओर भागता है और वासनाएँ हम पर हावी होने लगती है ।उसपर नियंत्रण पाने के लिए मन कइ बार नशे का सहारा लेता है ।पर नशा करने से वह और वासना के दलदल में फँसता जाता है ।कइ बार स्त्री को भी जब संतुष्टि का अभाव रहता है तब वह भी ऐसे सुख को भोगने हेतु संबंधों की रेखा लाँघ जाती है ।</div>
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संस्क्रृति,संस्कार,रीति रिवाज,मर्यादा ये सारे शब्द भारत की व्यावहारिकता को दर्शाता है ।नए संबंधों की नींव संकल्प और वचन बद्धता से की जाती है ।वेदों में ज्योतिष शास्त्र में कहा गया है कि शास्त्रानुसार संबंध जोड़ने से संतति अच्छी पैदा होती है । अगर ग्रह,नक्षत्र और श्वास के स्वर यानि नाड़ी का ध्यान रखते हुए संतति के लिए आयोजन करेंगे तो अवश्य बुध्धी जीवी संतति पैदा होगी ।जो संसार को उन्नति की ओर ले जाने में मददगार होगी ।आजकल घर में कुत्तों को भी अच्छी नस्ल देखकर लाया जाता है, तो फिर संतति के लिए ऐसी गड़बड़ क्यों ?</div>
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हमारे ऋषि-मुनियो ने हर विकार को दूर करने के लिए सोलह संस्कार की रचना की है ।जो गर्भ संस्कार से प्रारंभ कर के व्यक्ति की म्रृत्यु के पश्यात भी उस जीव को मुक्ति मिल सके उसके लिए संस्कार बनाए है । जिससे जीवन की हर अवस्था में विकारों से बचते रहें । हर संस्कार हमारी शारीरिक एवम् मानसिक उन्नति के लिए, उसकी वैज्ञानिकता को ध्यान में रखते हुए बनाए गए हैं ।आज के युग में हम हर कार्य में तर्क करते हुए उसमें वैज्ञानिक पहलु को ढूँढने की कोशिश करते रहते है ।जीन वेदों से विज्ञान का जन्म हुआ उसी विज्ञान से उनको ग़लत साबित करने का निरर्थक प्रयास किया जा रहा है ।धन कमाने के लिए बुद्धि <span style="font-family: 'Helvetica Neue Light', HelveticaNeue-Light, helvetica, arial, sans-serif;">की आवश्यकता होती है,पर सामाजिक व्यवहार में बुद्धि के साथ भाव की भी आवश्यकता होती है ।इसीलिए हमारे ऋषि-मुनीयों ने सोलह संस्कारों के साथ श्रद्धा का भाव भी जोडदीया,जिससे भाव के साथ कार्य करने से वह स्म्रृति में संस्कार का रुप ले लेता है । जो हमारी स्म्रुती में रहकर जीवनभर हमें अपने आदर्षो पर चलने के लिए सहायक होता है, उसे संस्कार कहते हैं ।</span></div>
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सांसारिक जीवन में योग का बहुत बड़ा महत्व है ।योग का मतलब ही होता है जोड़ना । योग करने से सांसारिक जीवन में योग्यता आती है । पर योग को बहुत ग़लत ढंग से समझा गया है ।संसार को छोड़ देना योग नहीं होता । दाढ़ी-बाल बढ़ाकर कहीं बैठ जाने को योग नहीं कहते, बैरागी बनकर यहाँ-वहाँ घूमने को भी योग नहीं कहते ।जिससे हमारे व्यवहार और कार्य में कुशलता आती है उसे योग कहते हैं ।योग द्वारा हमारे मन में स्थिरता आती है ।योग द्वारा हमें शारीरिक एवम् मानसिक स्तर पर स्फुर्ति मिलती है और शरीर में प्राणत्तत्त्व बढ़ता है ।पातंजली जी ने योग के अंग बताए है जिन्हें अष्टाँगयोग कहते हैं ।</div>
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सांसारिक जीवन में हम एक दूसरे की बातों पर, दूसरे व्यक्ति के साथ के भूतकाल के अनुभव के आधार पर और हमारे उस व्यक्ति के साथ संबंधों की निकटता के आधार पर हम विश्वास रखते हैं । हमारी ग़ैर मोजूदगींे मे या हमारे कहने पर व्यक्ति भविष्य में बताया हुआ कार्य करेगा ऐसा जब हम द्रृढ़ता से मानते है तब उसे हम विश्वास कहते हैं ।पूरा संसार एक दूसरे के विश्वास पर ही चलता है । इन्सान का सबसे पहला विश्वास है प्रक्रृति पर,क्योंकि पाँचो़ंतत्व अपने समय से कार्य करते हैं तभी संसार में संतुलन बना रहता है ।इसी विश्वास में जब भरोसा जुड़ जाता है तब यही विश्वास श्रद्धा बन जाता है ।जैसे प्रक्रृति बिना स्वार्थ ही हमपर सबकुछ न्यौछावर कर देती है उसी तरह जिस व्यक्ति के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है उसपर अपना सबकुछ न्यौछावर करने को समर्पण कहते हैं ।यही वजह है कि श्रद्धा को कइबार अंधश्रद्धा भी कहते है ।अगर हम अपने जीवन में झाँखकर देखें तो पता चलेगा कि ज़्यादातर भौतिक सुखों की चीज़ें हम एक दूसरे कि देखा-देखी में लेते रहते है ।अपनी जरुरीआत के हिसाब से कम लेते है ।हम उस भेड़ की तरह हैं जो एक गिरता है तो पीछे-पीछे सभी गिरते हैं ।जीवन में विश्वास करने से ही आगे बढ़ सकेंगे परंतु जिस पर विश्वास करो उसको अपनी बुद्धि से परख कर भी चलना चाहिए । तभी गुरुजी कहते हैं कि कुछ मानके चलो,कुछ जानके चलो प्रेम से सबको गले लगाकर चलो ।</div>
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जब हमारा मन किसी एक जगह पर टिकता हैं उसी को श्रध्धा कहते हैं ।वेदों ने और शास्त्रों ने अपने भीतर की ही शक्तियों का प्रतीकात्मक रूप में मूर्ति स्वरुप बनाकर उसमें प्राण प्रतिष्ठा करके <span style="font-family: 'Helvetica Neue Light', HelveticaNeue-Light, helvetica, arial, sans-serif;">श्रध्धा का स्थान बनाया ।जहाँ श्रध्धा टिकती है उस स्थान को मंदिर,मस्झिद या गिरजाघर कहते हैं ।जहाँ पर अपने अहंकार को छोड़कर नतमस्तक होते हैं उसे मंदिर कहते हैं ।पूर्णरूप से समर्पित होकर करने वाले कार्य को पूजा कहते हैं ।जब मंदिर में स्थापित मूर्ति को या शिवलिंग को पुष्प,जल या दुध चढ़ाते है तब मंत्रों के द्वारा भीतर के भाव को प्रकट करते हुए अंतर मन से प्रार्थना करते हैं की हे प्रभु ! तुम मुझ में जल की तरह शुद्धता और निर्मलता,पुष्प की तरह सुवास और कोमलता एवं दूध जैसी स्निग्धता एवं गुणों को मेरे अंदर जगाओ, जिससे सदगुण मेरे अंदर बने रहें और दुर्गुण और विकारों से मुझे मुक्ति मिले ।</span></div>
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<span style="font-family: 'Helvetica Neue Light', HelveticaNeue-Light, helvetica, arial, sans-serif;">शब्द ब्रह्म है,शब्द नाद है । वायु की कंपन से शब्द उठते हैं और उसके नाद से जल में तरंगें बनती है । जिसके उच्चारण से चारों और ऊर्जा का संचार होता है उसे मंत्र कहते हैं ।शब्दों से बना यह मंत्र जब लयबद्धता से गाया जाता है तब बाहरी वातावरण में और शरीर के भीतर यही तरंगें ऊर्जा का स्वरूप ले लेती हैं ।मन और वातावरण में शुचिता फैल जाती है ।</span></div>
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<span style="font-family: 'Helvetica Neue Light', HelveticaNeue-Light, helvetica, arial, sans-serif;">इस तरह पूजा-अर्चना करते हुए हम अपने भीतर की शक्तियों को जगाते है ।द्वैत से अद्वैत की और,अाकार से निराकार, दृश्य से अदृश्य की और जाकर वहाँ ध्यान द्वारा खुद को केन्द्रित करने की प्रक्रिया को ही पूजा कहते हैं ।यानि जो हमारे सामने मूर्ति स्वरूप है उस द्वेत स्वरूप में समर्पित होकर ख़ुद के भीतर की अद्वैत की शक्तियों में स्थिर होना ही अाध्यात्म है । अाध्यात्मिक यानि जो अपने आत्मभाव में साक्षी स्वरूप रहता है वह आध्यात्मिक कहलाता है ।जो मार्ग दिखाता है उसे मार्गदर्शक कहते हैं ।निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचा हुआ व्यक्ति ही मार्गदर्शक बन सकता है ।जिसने आत्मसाक्षातकार किया हो वही आध्यात्मिकता का मार्गदर्शक कहलाता है ।जो ख़ुद मार्ग से भटका हुआ है वह मार्गदर्शक यानि सदगुरु नहीं बन सकता । जो अंधकार से प्रकाश की ओर,असत्य से सत्य की ओर ले जाता है वही है सदगुरु । यह लिखते हुए मुझे गुरुजी का एक वाक्य याद अा रहा है ।गुरुजी कहते है जहाँ दुख है वहाँ ज्ञान नहीं रहता और जहाँ पर ज्ञान है वहाँ दुख नहीं रह पाता ।ज्ञान की चिंगारी मात्र से जो हमें दुख से बाहर निकालता है वही है सदगुरु ।</span></div>
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<span style="font-family: 'Helvetica Neue Light', HelveticaNeue-Light, helvetica, arial, sans-serif;">उपनिषद कहता है धार्य ते ईती धर्म:- जिसने सत्य के मर्म को धारण किया है उसे धर्म कहते हैं । जो किसी आदर्श पर नहीं टीक पाते वे हर आकर्षण पर गिरते हैं ।केवल धर्म ही है जो हमें धारण करता है,और सत्य के मार्गपर टीकाए रखता है ।व्यक्ति के भीतर के व्यक्तित्व को जगाकर उसे सत्य के मार्ग पर लाने को धर्म कहते हैं ।धर्म परिवर्तन हो ही नहीं सकता क्योंकि वह तो सनातन है आवश्यकता है व्यक्ति में परिवर्तन लाने की ।</span></div>
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<span style="font-family: 'Helvetica Neue Light', HelveticaNeue-Light, helvetica, arial, sans-serif;">एक मकान को खड़ा करने के लीए ज़मीन की आवश्यकता होती है ।उसी तरह किसी भी संप्रदाय को टिक ने के लिए धर्म की आवश्यकता होती है ।जिसकी धरा पर धर्म टिकता है उसे सनातन कहते हैं । जो सदियों से चला आया है और सदियों तक रहेगा ।</span></div>
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<span style="font-family: 'Helvetica Neue Light', HelveticaNeue-Light, helvetica, arial, sans-serif;">भगवान का मतलब ही होता है भूमि,गगन,वायु,अग्नि और आकाश ।यानि जो कण-ाकण में व्याप्त है वो भगवान ।सर्वम खलविदंं्म् ब्रह्म । जब अलग अलग विचारकों ने ख़ुद के आत्मसाक्षातकार के आधार पर इस ब्रह्म ज्ञान को समझकर लोगों को समझाया तब विभिन्न संप्रदायों की रचना हुई ।जब मन पूर्णत: आत्मा के साथ जुड़जाता है अर्थात मन और आत्मा के बीच से अहंकार का पर्दा हट जाता है तब शायद मन को आत्मा का साक्षात्कार होता होगा ।</span></div>
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<span style="font-family: 'Helvetica Neue Light', HelveticaNeue-Light, helvetica, arial, sans-serif;">नदी को भी एक निश्चित दिशा में बहने के लिए किनारो की ज़रूरत पड़ती है ।ठीक उसी तरह संप्रदाय में भी दिशा निर्देश और संचालन के लिए नियमों की आवश्यकता रहती है ।केवल क़ानून की किताब पढ़ने से या साथ रखने से कोई जज या वकील नहीं बन सकता ।वैसे ही विविध संप्रदायों के धर्म ग्रंथों की अदला-बदली से जन्म के साथ मिले संस्कारों को छोड़ना या तोड़ना संभव नहीं है ।</span></div>
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<span style="font-family: 'Helvetica Neue Light', HelveticaNeue-Light, helvetica, arial, sans-serif;">गुरुजी कहते हैं कि केले के गर को उसका छिलका भीतर थाम के रखता है, वैसे ही अपने अंदर की आध्यात्मिकता को धर्म ने थाम के रखा है । पर लोग संप्रदाय रुपी धर्म को पकड़ के रखते हैं और आध्यात्मिकता को छोड देते है ।</span></div>
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<span style="font-family: Helvetica Neue Light, HelveticaNeue-Light, helvetica, arial, sans-serif;">संत की पहचान</span></div>
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<span style="font-family: Helvetica Neue Light, HelveticaNeue-Light, helvetica, arial, sans-serif;"><br></span></div>
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<span style="font-family: Helvetica Neue Light, HelveticaNeue-Light, helvetica, arial, sans-serif;">संत और समाज एक दूसरे के पर्याय है। संत का जन्म समाज में से ही होता है। और यही समाज के हित की रक्षा का दायित्व संत पर होता है ।संत का धर्म लोगों के चरित्र की रक्षा करने का है और भटके हुए को मार्ग पर लाने का है।जब समाज में और लोगों के मन में विकृति बढ़ती है तो उस पर अंकुश लगाने का कार्य भी संत का है।मन में उठे हुए विचार और भावना के स्वार्थ से दूसरों को दुख न पहोचे एेसे संस्कार देने का कार्य भी संत का है। यदि इस तरह का आचरण आप करते हैं तो आप भी संत ही हैं । यदि </span><span style="font-family: 'Helvetica Neue Light', HelveticaNeue-Light, helvetica, arial, sans-serif;">हम डर से भयभीत हो कर या चमत्कार से संत की शरण में जाते हैं और श्रद्धा रखते हैं तो यह हमारी बहुत बड़ी भूल है। इस तरह की श्रद्धा को अंधश्रद्धा कहते है । श्रद्धा यानि गुरु के वचनों का पालन करना और उनके आचरण का अनुसरण करना ।श्रद्धा तो अंधी ही होती है, पर अपने शिष्य की श्रद्धा पर अटूट विश्वास बनाकर रखने का कार्य गुरुजन का है । गुरुजन की कथनी और करनी में अंतर अा जाता है तो यही श्रद्धा अंधश्रद्धा बन जाती है ।और एेसे गुरुजन अपने ही शिष्य की श्रद्धा के साथ विश्वासधात करते हैं ।। किसी भी प्रकार के भय,डर और चमत्कार के बगैर हमारे भीतर प्रेम के द्वारा जो आत्म विश्वास और श्रद्धा बढ़ाते हैं उन्हें सदगुरु कहते है। जहाँ श्रध्धा की कमी होति है वहाँ असुरक्षा का भाव जग जाता है ।और अनेक प्रकार की शंका,कुशंका मन में जग जाती है ।यही शंका कुशंका मघुर संबंधों में कटुता पैदा करती है। इसी वजह से कइ बार संबंध टूट भी जाते हैं । शंका,कुशंका और असुरक्षा की भावना हमें लोभ,लालच,मोह,क्रोध,अहंकार और असत्य के भँवर की ओर ले जाती है ।हमारा मन अपनी ही शंका को सत्य साबित करने के लिए असत्य का सहारा लेता है। और उसने जो कहा वही सत्य है उसका प्रमाण खुद को दे देता है । इस तरह मन खुद के बनाए हुए भँवर में फँस जाता है ।। मन अपनी पाँच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से खुद के वासनारूपी अंतर सुख को प्रत्यक्ष भोगने हेतु अपनी ही पाँच कर्मेन्द्रियाँेेको आदेश देता है। तब यह मन अपनी सारी शक्तियों को एकत्रित करके छल या बल के माध्यम से क्षणिक सुख को प्राप्त करता है । संत वो है जो अपनी पाँच ज्ञानेन्द्रियों को कछुए की भाँति अपने अंकुश में रखता है और दूसरों को अंकुश में रखना सिखाता है । जब भी हमारा मन उलझनों में फँसता है या जीवन से दुखी हो जाता है तब वह कृपा का, श्रद्धा का सहारा ढँूढता है । हमारी मजबूरी का फ़ायदा उठाकर डराकर या चमत्कार दिखाकर ऐसे ठग,संत के वेश में हम पर हावी हो जाते हैं ।और हमसे पैसों की या अपने शारीरिक सुख की हवस को भोगते हैं । उलझन और दुख दूर करने की लालसा में हम भी खुद को लुटाते रहते है ।। जिनके सान्निध्य से या मात्र चिंतन से मन में शांति और आत्मविश्वास का अहसास होता है वही सदगुरु रूपी संत की पहचान है ।।</span></div>
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Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02317505440579481583noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7018758742599458739.post-13151513688911673252014-12-29T18:05:00.001-08:002014-12-29T18:05:14.505-08:00DepressionWhen you loose your patience in any situation then frustration pops up now frustration leads you to aggression and with aggression irritation starts in mind about the person or situations. Finally you caught up in cycle of frustration aggression and irritation. This is called depression. Depression is worrying about your past situation So keep your mind in present moment have patience and through away depression Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02317505440579481583noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7018758742599458739.post-44002059050239137612014-12-23T19:05:00.001-08:002014-12-23T19:05:33.394-08:00धर्मधर्म भीतर की आध्यात्मिक ता को थाम के रखता है । धर्म एक ही होता है पर संप्रदाय कइ होते है । हर संप्रदाय अलग अलग भौगोलिक परिस्थिति के आधार पर मानव समाज के हीतो की रक्षा के लीए बनाए जाते है । पर संप्रदाय के और समाज के रक्षक ही उसके भक्षक बन गए है । समाज सुधारक के रुप में आज के नेता उसके ठेकेदार बन गए है । पैसा,सत्ता और ताक़त के जोर पर नेता संप्रदायों के कमज़ोर वर्गों को लालच देकर संप्रदाय परीवर्तन करने को मजबूर करते है । जो काम पहले अंग्रेज़ और फीर मुग़ल कीया करते थे आज वह हमारे ही चुनें हुए कुछ नेता करते है । ऐसे भी संप्रदाय अपने भारत देश में है,जो संविधान के तहत मौलिक अधिकार का लाभ जरुर उठाते है पर संविधान के कानुन के डायरे से बाहर है । और ख़ुद के संप्रदाय के कानुन बनाकर चलते है । केवल स्वार्थ ही जीसका धर्म है ऐसे नेता उसकी रक्षा करते आए हैं । मेरा नेताओं से निवेदन है की संप्रदायों के युध्ध को छोड़ देश के विकास की और ध्यान दे । धर्म अपनी रक्षा करना जानता है और हर युग मैं उसका रक्षक हाजीर रहता है ।Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02317505440579481583noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7018758742599458739.post-10316921247703520952014-07-17T17:06:00.001-07:002014-07-17T17:06:54.784-07:00MotherUnknowingly mother taught us three things:- tolerance,patience, and forgiveness and this are the first steps of spiritual path Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02317505440579481583noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7018758742599458739.post-85476328863610558852014-07-01T23:56:00.001-07:002014-07-01T23:56:59.912-07:00धार्य ते इती धर्मजीसने सत्य के मर्म को धारण कीया है वह धर्म है । जो कीसी आदर्श पर नहीं टीक पाते वह हर आकर्षण पर गीरते है । केवल धर्म ही है जो हमें धारण करता है और सत्य के मार्ग पर टीकाता है ।<div><br></div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02317505440579481583noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7018758742599458739.post-74512660583067149142014-07-01T23:15:00.001-07:002014-07-01T23:15:28.175-07:00साक्षी भावजीवन में कुछ ना कुछ बनने की दौड़ लगी रहती है ।कुछ बन जाने के बाद उसे खोने का डर रहता है । यह जीवन कुछ खोने और कुछ पाने के चक्कर में बीत जाता है । और अपना अहंकार ही कुछ पाने में ख़ुशी देता है और खोने में ग़म देता है ।आत्मा न कुछ खोता है न कुछ पाता है वह तो साक्षी भाव से सबकुछ देखता रहता है । जब हम याने मन रुपी अहंकार इस आत्मरुप के साथ एक हो जाता है तब मन की दौड़ भी शांत हो जाती है ।<div>जबतक मनरुपी जल में ऊद्वेग रुपी कंकर पड़ते रहेंगे तबतक अपना मन अशांत ही रहेगा । पर जैसे ही जल शांत होता है तब वह बाहर का प्रतीबींब दीखाता है और भीतर भी पारदर्शी रहता है ।</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02317505440579481583noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7018758742599458739.post-78158302202100685092014-06-28T02:09:00.001-07:002014-06-28T02:09:44.442-07:00ये अंग तेराये अंग तेरा है,ये संग तेरा है ।ये दीया हुआ रुपरंग भी तेरा है ।सबकुछ तेरा है फीर भी जीवन में अंधेरा है । क्यों की जीवन में अहंकार काबसेरा है । ऐ दोस्त करदे अपने प्रेमरुपि ज्ञान को उजागर फीर देख हर सवेरा भी तेरा है ।Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02317505440579481583noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7018758742599458739.post-64633754162123138982014-06-28T01:59:00.001-07:002014-06-28T02:01:42.265-07:00In your heartI am always there with you in your heart,because I am part of your heart. You just remember me when ever you need me. Just close your eyes and listen to your heart, because I am part of your heart. You love your self as much as you love me because I part of your heartAnonymoushttp://www.blogger.com/profile/02317505440579481583noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7018758742599458739.post-74904459744040911042014-05-31T17:35:00.001-07:002014-07-01T23:39:31.762-07:00TimeThe day when you know the value and importance of others time at that time, time evaluet your time <div>SPIRITUALITY :-Utility of your spirit for others growth that is spirituality </div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02317505440579481583noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7018758742599458739.post-65576842637598397092013-11-08T23:20:00.001-08:002013-11-08T23:20:35.827-08:00Secularism<span class="Apple-style-span" style="font-family: Noteworthy; font-size: 18px; font-weight: bold; line-height: 24px; -webkit-composition-fill-color: rgba(130, 98, 83, 0.09375); -webkit-composition-frame-color: rgba(191, 107, 82, 0.496094); -webkit-tap-highlight-color: rgba(26, 26, 26, 0.296875); -webkit-text-size-adjust: auto; ">What is secularism? Very wrongly interpret by politician and taking maximum advantage of this word. With there own definition they divide the nation and rule on nation. Every political party has focus to one cast or religion to win the election. No one even has a right to talk about secularism. But still they make fool to the people in the name of secularism. Secularism means distribute the benefits to the people without any cast or religious differences. Work on base of humanity. Don't give advantage to particular cast and religion. Equal distribution to all religion according to there skills and intelligence </span>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02317505440579481583noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7018758742599458739.post-75138423624862788612013-09-07T21:22:00.001-07:002013-09-10T03:39:01.045-07:00संत की पहचानसंत और समाज एक दुसरे के परियाइ है। संत का जन्म एक समाज में से ही होता है। और यही समाज के हित की रक्षा का दाइत्व संत का है।संत का घर्म लोगों के चरीत्र की रक्षा करने का है और भटके हुए को मार्ग पर लानेका है।जब समाज में और लोगों के मन में विकृति बढ़ती है तो ऊसपर अंकुश लाने का कायॅ भी संत का है।मन में उठे हुए विचार और भावना के स्वार्थ से दुसरो को दुख न पहोचे एसे संस्कार देने का कायॅ भी संत का है।। अगर इस तरह का आचरण आप करते हो तो आप भी संत ही हो।। अगर हम डर से,भयभीत हो कर या चमत्कार से संत की शरण में जाते है और श्रध्घा रखते है तो यह हमारी बहुत बड़ी भुल है। इस तरह रखी हुइ श्रध्धा को अंधश्रध्धा कहते है।। श्रध्धा याने गुरू के वचन का पालन करना और उनके आचरण का अनुसरण करना ।श्रध्धा तो अंध ही होती है, पर अपने शिष्य की श्रध्धा पर अतुट विश्वास बनाकर रखने का कायॅ गुरूजन का है । अगर यही गुरूजन की कथनी और करनी में अंतर अा जाता है तो यही श्रध्धा अंधश्रध्धा बन जाती है ।और एसे गुरूजन अपने ही शिष्य की श्रध्धा के साथ विश्वासधात करते है ।। कीसी भी प्रकार के भय,डर और चमत्कार के बगैर हमारे भीतर प्रेम के द्वारा जो आत्म विश्वास और श्रध्धा बढ़ाते है उन्हे सतगुरू कहते है। जहाँ श्रध्धा की कमी होति है वहाँ असुरक्षित ता का भाव जग जाता है ।और अनेक प्रकार की शंका,कुशंका मन में जग जाती है ।यही शंका कुशंका मघुर संबंधों में कटुता पैदा करते है। इसी वजह से कइबार संबंध टुट भी जाते है ।। शंका कुशंका और असुरक्षित भावना हमें लोभ,लालच,मोह,क्रोध,अहंकार और असत्य के भंवर की और ले जाती है ।हमारा मन अपनी ही शंका को सत्य पुरवार करने के लीए असत्य का सहारा लेता है। और वही सत्य है उसका प्रमाण खुद को दे देता है । इसतरह मन खुद के बनाए हुए भंवर में फँस जाता है ।। मन अपनी पाँच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से खुद के वासनारूपी अांतर सुख को प्रत्यक्ष भोग ने हेतु अपनी ही पाँच कर्मेन्द्रियाँे को आदेश देता है। तब यह मन अपनी सारी शक्तिओ को एकत्रित करके छल या बल के माध्यम से क्षणीक सुख हाँसिल करता है । संत वो है जो अपनी पाँच ज्ञानेन्द्रियों को कछुअे के भाती अपने अंकुश में रखता है और दुसरो को अंकुश मैं रखना सीखाता है । जब भी हमारा मन उलझनो में फँसता है या जीवन से दुखी हो जाता है तब वह कृपा का, श्रध्धा का सहारा ढुंढता है । हमारी मजबुरी का फ़ायदा उठाकर डराकर या चमत्कार दीखाकर ऐसे ठग संत के वेशमें हम पर हावी हो जाते है ।और हमसे पैसों की या अपने शरीर सुख की हवस को भोगते है । उलझन और दुख दुर करने की लालच मैं हम भी खुद को लुटाते रहते है ।। जीनके सानिध्य से या मात्र चिंतन से मन में शांति और आत्मविश्वास का अहसास होता है वही संत है ।।Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02317505440579481583noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7018758742599458739.post-27802174045228147432013-08-14T22:29:00.001-07:002013-09-10T03:39:39.191-07:00आझाद भारत<span class="Apple-style-span" style="font-family: '.Helvetica NeueUI'; font-size: 18px; line-height: 24px; -webkit-composition-fill-color: rgba(130, 98, 83, 0.09375); -webkit-composition-frame-color: rgba(191, 107, 82, 0.496094); -webkit-tap-highlight-color: rgba(26, 26, 26, 0.296875); -webkit-text-size-adjust: auto; ">आझाद भारत को फीर आझादी की ज़रूरत हुआ भारत आझाद अंग्रेजों कि हुकुमत से, पर नहीं हुआ आझाद राजनीति की कुटनितीओं से। कानुन बनाया अंग्रेजों ने, अपने हित की रक्षा के लीए, अब राजकारणी बनाते है कानुन अपने हित की रक्षा के लीए।। अशीक्षीत और गंवार समजते है हम मात्रुभाषा के रक्षक को,समजते है उसे शीक्षीत,जो बोलता है अंग्रेजी के चार शब्द को ।। अपने ही देश में गौरांवित होने से डरता हुं, हीन्दभाषी होके खुद हिन्दु बोलने से डरता हुं । नहीं है मुझे सोचने की अाझादी, नहीं है मुझै बोलने की आझादी, फीर भी कहता हुं मैं आझाद हुं ।। आझाद भारत को फीर आझादी की ज़रूरत</span>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02317505440579481583noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7018758742599458739.post-70615104009314430372013-01-29T20:04:00.000-08:002014-05-27T23:28:37.588-07:00LEELOPAKH YAN,<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"><span><strong></strong></span></span><br>
<strike><span style="font-size: large;"></span></strike><br>
<strike><span style="font-size: large;"></span></strike><br>
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<span style="font-size: large;">1. पूर्व काल में भूतल का राजा, नाम उसका पद्म नाम ।</span></div>
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<span style="font-size: large;"> बड़ा ही विवेकशील और विद्वान, सद्गुणी और गुणों की खान ।</span></div>
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<span style="font-size: large;"></span> </div>
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<span style="font-size: large;">2. था लीला उसकी पत्नी का नाम, वह सुंदरी लक्ष्मी के समान,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> आया उसके मन में विचार, करूँ कैसे राजा को अजर अमर समान ।</span></div>
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<span style="font-size: large;"></span> </div>
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<span style="font-size: large;">3. उसने पुछा ब्राह्मणों से सवाल, उपाय अमरत्व का बताओ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> बोले ब्राह्मण ! </span></div>
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</div>
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<span style="font-size: large;"> मिले सिद्धियाँ जप-तप नियम से, नहीं है हमें अमरत्व का ज्ञान, </span></div>
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<span style="font-size: large;"> लीला ने लिया संकल्प सिद्धि का, शुरू किया जप तप और ध्यान,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> प्रसन्न हुई सरस्वती माता, दिया माता ने मनवांछित वरदान ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">4. किया जय-जयकार माता का, माँगा उसने दो वरदान ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> छूटे जब शरीर पति का, जीव अन्तःपुर में रुक जाए, </span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> अभिलाषा जब-जब दर्शन की करू तब-तब माँ प्रकट हो जाए ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">5. माँ ने कहा पूर्ण हो तेरी अभिलाषा, पूर्ण हो तेरा अंतर का ध्यान ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">6. काल चक्र के चलने पर हुआ शत्रु का आक्रमण एक दिन ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> घायल हुआ राजा युद्ध में, धराशायी हुआ शरीर उस दिन ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">7. अंत:पुर में लाए राजा को, छूटा शरीर राजा का उस दिन,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> विहवल हुई लीला वियोग से, तब माता ने अनुकम्पा की ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">8. सलाह दी माता ने लीला को, ढक दे शव को फूलों के ढेर में,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> जीवित होगा यह शव कुछ दिन में, संभालेगा दायित्व फिर</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> पति के रूप में ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">9.स्मरण किया लीला ने माँ का, हाजिर हुई माँ वचन से, बोली लीला,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> मुझे ले चलो पति के पास, न जी पा बिन पति की आस ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">10. बोली सरस्वती माता, सुमुखी ! एक शुद्ध चेतन परमात्मा आकाश, दूजा है मन रूप आकाश, तीसरा है सुप्रसिद्ध भूताकाश ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">11. तुमने पूछा पति का स्थान, अब वह है चेतन आकाशमयकोष ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">12. करेगी जो तू एकाग्र मन चिंतन तब करोगी अनुभव आकाश, स्थित हो जाओ उस परब्रह्म चेतन आकाश, तब पाओगी पति का साथ ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">13. सुनकर लीला स्थित हुई निर्विकल्प समाधि, देखा राजा पद्म को सिंहासन था वह देह ,गेह और वैभव से संपन्न ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">14. इतने में लीला प्रविष्ट हुई आकाश से, देखा लीला ने सबको, पर न देखा किसी ने उसको ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">15. पाया वैसा ही जैसा था पहले से, चिंतित हुई लीला तब, जब देखे नए लोग पहले से ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">16. टूटी समाधि जब लीला की, पाया सब को सोया हुआ पहले से ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">17. लगाया सबको अपने कार्य में, प्रसन्न हुई लीला मन ही मन में, फिर पास गयी लीला फूलों के ढेर,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> पाया शव वहीं पर राजा का ढेर ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">18. जो देखा समाधि रूप आकाश जगत में, वही देखा आज इस वास्तविक जगत में ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">19. जैसे स्थित होता है पर्वत, दर्पण के बाहरी और भीतर के रूप में,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> वैसे ही प्रतीत होती है सृष्टि, चेतन आकाश रूपी बाहरी और भीतर के रूप में ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">20. याद किया लीला ने माँ को, पूछी विडम्बना अपने मन की ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">21. कौन सृष्टि है भ्रांतिमय और कौन सृष्टि है वास्तविक ?</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">22. यह त्रिलोकी का प्रतिबिम्ब वैभव, है स्थित बाहर भी और भीतर भी ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">23. समझती हूँ मैं इस सृष्टि को सच, जो प्रत्यक्ष है,और कृत्रिम समझती हूँ उस सृष्टि को जहाँ</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> मेरे पति विराजमान हैं। नहीं होती सिद्धि वहाँ, देश, काल और व्यवहार की ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">24. कहा देवी ने, सुन प्रिये! नहीं होता उदय कभी कारण से भिन्न कार्य का, नहीं होती उत्पन्न सृष्टि अकृत्रिम सृष्टि से कदापि कृत्रिम सृष्टि ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">25.नहीं है भिन्न यह असत सृष्टि, उसके ही आश्रयभूत चेतन आत्मा से,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> है आश्रय यह सभी जगत का, चेतनतत्त्व परब्रह्म ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">26.जैसी करे जीव भावना, उस रूप में भाषित हो जाए ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">27.देवी ने कहा, सुन सुमुखी, मेरी यह बात---</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">28.पूर्व समय में एक ब्राह्मण था, नाम था उसका वशिष्ठ,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> उसकी सुन्दर, सुशील पत्नी थी, नाम था उसका अरुंधती ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> ब्राह्मण के मन नित्य स्वप्न रहा, बनूँगा मैं भी कभी एक राजा</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> प्रिये ! वही ब्राह्मण बना अब राजा पद्म, और अरुंधती बनी लीला ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> यह सृष्टि क्रम तुम्हारा पूर्व जनम का, कठिन है अब यह कहना,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> कौन सृष्टि है भ्रमपूर्ण और कौन सृष्टि है भ्रम रहित ?</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">29.यही वर माँगा था अरुंधती ने मुझसे तब, जब जीवात्मा ब्राह्मण की भी स्थित हुई अंत:पुर में ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">30. छोड़ा पत्नी ने शरीर तब ध्यान से,पहुँची सूक्ष्म शरीर से पति के पास, वह पति-पत्नी तुम ही हो ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">31. होती है स्मृति लुप्त स्वप्न में जाग्रत काल की, उदित होती है दूसरी स्मृति स्वप्न में जाग्रत काल की ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">32. उदित हुई तुम दोनों की पूर्व जन्म की स्मृति स्वप्न में पूर्व काल की, नष्ट हुई तुम दोनों की पूर्व जन्म की स्मृति जागरुकता में पूर्व काल की ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">33. पर विपरीत हुआ दूसरी स्मृति से, वह असत्त उत्पन्न हुआ ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">34. है यह जगत आभास मात्र सृष्टि की प्रतीति से, वैसे ही क्षण, कल्प भी आभास मात्र, आदि की प्रतीति से ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> नहीं है वास्तविक क्षण कल्प भी आदि की प्रतीति से ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">35. बोली लीला देवी से---</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">36. हे माँ ! ले चलो मुझे मेरे पूर्व जन्म में, वह पर्वतीय गाँव और घर में, देखना चाहती हूँ उस सृष्टि को,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> मिलना चाहती हूँ उस ब्राह्मण-ब्राह्मणी से ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">37. कहा माँ ने अगर देखना चाहती हो उस पूर्व सृष्टि को, फिर त्याग करो यह देहाभिमान । है रुकावट यह शरीर तुम्हारा, उस सृष्टि के गृहद्वार का ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">38. अगर देखना है तुम्हें वह ब्रह्म तो बनना पड़ेगा तुम्हें भी ब्रह्म, क्योंकि ब्रह्म ही ब्रह्म को देखता है ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> जो नहीं है ब्रह्म स्वरूप, वह कैसे देखेगा ब्रह्म का रूप ?</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">39. करते हैं केवल वही उस परम पद का साक्षात्कार, जो अद्वैत को अद्वैत भाव से जानता है ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">40. बारम्बार जो करे अभ्यास ब्रह्म ज्ञान का, स्थित होता वह दृढ़ अद्वैत भाव से ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">41. जब तक न हटे द्वैत, द्वंद्व और भेद मन से, तब तक न पाओगे अद्वैत का ज्ञान ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">42. हे चंचले ! स्वभाव से अविचार आए और विचार से उसका नाश हो जाए ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">43. होती है जब ब्रह्म की सत्ता तब न रहे अविचार और अविद्या ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">44. न कहीं अविचार है न कहीं अविद्या, न कहीं बंधन है न कहीं मोक्ष ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">45. यह जगत है केवल बोधस्वरूप और परोक्ष ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">46. किया जब तुमने विचार, तो पाया बोध का स्वरूप, बीज बोध का किया अंकुरित चित्त में और किया वासना का क्षय । </span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> अभाव हुआ द्रष्टा, द्रश्य और द्रष्टि छूटा राग और द्वेष, उत्पत्ति हुई निर्मूल संसार की, स्थिर हुई निर्विकल्प समाधि पूर्णतः।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">47. होता है शरीर स्वप्नावस्था का शांत, जब हो जाता है हमें स्वप्न का ज्ञान ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">48. जो समझते हैं शरीर जागरूक अवस्था में स्वप्नवत शांत, क्षीण होती हैं उसकी वासनाऐं भी स्वप्नवत शांत।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">49. जब स्थूल शरीर में होती है अहम् भावना भी शांत, </span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">तब अनुभव होता है अहम् भावना का सूक्ष्म शरीर में भी शांत ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">50. जब होती है अवस्था जागृत मन की, वासना के बीज से रहित, तब होता है मुक्त यह जीवन और वासना से रहित ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">51. जब हो जाती हैं वासनाएँ सुप्त और विलीन, सुषुप्ति कहते हैं उस निद्रा को ज्ञानी और ब्रह्मलीन ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">52. करे जो क्षय वासनाओं का अपने मन की अवस्था में, पहुँचता है वह ब्रह्मज्ञानी तुर्य रूप की अवस्था में ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">53. लीला इस तरह जब अभ्यास करो तुम पूर्णता से, तब ब्रह्मभ्यासी हो जाओगी ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> कहते हैं वशिष्ठजी - हे रघुनन्दन !</span></div>
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<span style="font-size: large;"> लगाई समाधि दोनों देवियों ने राजा के शव के पास ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> हुई समाधि निर्विकल्प, बाह्य ज्ञान शून्य हुआ, जगत उन में तिरोहित हुआ, बोध हुआ बिन सत्ता का, लिया संकल्प चिन्मय चित्त में और आकाश में उड़ने लगीं ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">54. देखे विभिन्न लोक और विभिन्न दृश्य, देखा वह स्थान जहाँ वशिष्ठ का घर था ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">55. किया स्वागत दोनों का लीला के ही पुत्र ने, बताया वृतांत्त ब्राहमण मात-पिता का, फिर पूछा निवारण इस शोक का, कि कैसे गए मात-पिता स्वर्गलोक ?</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">56 आशीर्वाद दिया माता ने,किया निवारण उस के सुख-दुःख का, और हो गए दोनों अदृश्य उस आकाश जगत में ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">57. कहा लीला ने फिर देवी से, कृपा हुई आपकी मुझ पर, स्मृति आई मुझे पूर्व जन्मों की ,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> उत्पन्न हुई मैं विभिन्न योनिओं और परिवारों में ।</span></div>
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<span style="font-size: large;">58. अब इच्छा हुई मेरी, पति के नगर जाने की, चलो हम दोनों वहीँ चलें,</span></div>
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<span style="font-size: large;"> और गमन किया आकाश मार्ग से ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">59.पहुँचे दोनों सूर्यप्रकाश से परे, पहुँचे ब्रह्माण्ड के भी पार, देखा जल का आवरण वहाँ पर ,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> देखा अग्निमय आवरण भी वहाँ पर ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">60.देखा उससे अधिक आकाश का आवरण,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> तदन्तर देखा विशुद्ध चिन्मय आकाश</span></div>
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<span style="font-size: large;"> न था उसका आदि, मध्य और अंत ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> ऐसे लीला ने अनन्त ब्रह्मांडों को देखा, जिसमें करोड़ों सृष्टियों को भी देखा,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> अनेक सृष्टि कर्ताओं को भी देखा,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> संपूर्ण बुद्धि का वैभव भी देखा ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">61. अन्तःपुर में पुष्पों से आच्छादित महाराज पद्म का शव देखा,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> समाधि अवस्था में स्थित,पास बैठा खुद का स्थूल शरीर देखा ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">62.गई लीला उस लोक में फिर ,जहाँ उसका पति पद्म था ।</span></div>
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<span style="font-size: large;">63गई लीला जम्बूदीप के भारतवर्ष ,जहाँ पिता का राज्य था ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">64.किसी ने किया आक्रमण राज्य पर ,युद्ध देखने रूकीं दोनों देवी वहाँ पर ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">65.दिखा राजा पद्म वहाँ पर ,यहाँ पर वह राजा विदुरथ था ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">66.विदुरथ ने किया मुग्दर का प्रहार ,आरंभ हुआ अस्त्र शस्त्र से युद्ध ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">67.खड़े और डटे थे दोनों राजा वहाँ पर ,सिन्धुराज और विदुरथ अपने अपने पक्ष पर ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">68.फिर दोनों के सेनापतियों ने किया विचार ,युद्ध का बीच में ही किया विराम ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">69.खिन्न होकर राजा विदुरथ,दो घड़ी में सो गए कक्ष में ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">70.किया प्रवेश लीला और सरस्वती ने,राजा विदुरथ के कक्ष मे ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">71.निद्रा भंग हुई राजा की,किया विराजमान दोनों को आसन पर ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">72.फिर जगाया मन्त्री को नींद से,पूछा राजा को जन्म का वृतांत ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">73.इक्श्वान्कू वंश के हैं राजा वंशज,नवमी पीढ़ी मैं उत्पन्न हुए नभोरथ ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">74.उनके पुत्र हुए विदुरथ,दश वर्ष की आयु में संभाला राज्य का भार ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">75.पिता चले गए वनवास,धर्मपूर्वक संभाला राज्य का अधिकार ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">76.दिया माता ने आशीर्वाद राजा को,जिससे हुआ पूर्व जन्म का ज्ञान ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">77.विस्मित हुआ राजा मन ही मन,देखा संसार की माया का हाल ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">78.करवाया राजा को ज्ञानामृत पान,माँगी विदा देवियों ने राजा से ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">79.तब माँगा वर राजा ने देवी से,जाऊँ जिसलोक में मैं,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> पाए वही लोक यह मंत्री और कन्या।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">माँ सरस्वतीने कहा---</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">80.हे सम्राट ! है निश्चित तुम्हारी मृत्यु ,युद्धके इस संग्राम में।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">81. होगा प्राप्त तुम्हें अपना प्राचीन राज्य ,आना होगा तुम तीनों को</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> वहाँ शव रूप शरीर में।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">82.फिर तुम्हें सूक्ष्म शरीर से आना होगा उस प्राचीन नगर में।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">83.दूत आया इतने में राजा का,कहा- शत्रु राजा ने किया युद्ध का आहवान,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> किया प्रवेश राजा ने शत्रु सेना में और घायल हुआ वह घायल युद्ध में।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">84.किया महल में प्रवेश जब,श्वांस मात्र ही शेष थी शरीर में।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> फिर कहा माँ सरस्वती ने लीला से सुनो प्रिये !</span></div>
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<span style="font-size: large;">85.अनुभव क्या होता है जीव को मृत्यु के पश्चात् ?</span></div>
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<span style="font-size: large;"> क्रम कर्मफल का क्या होता है मृत्यु के पश्चात् ?</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">86शांत होंगे संशय तुम्हारे,जब तुम सुनोगी इसे प्रिये ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">87.है कारण आयु अधिक और न्यून का,देश काल और क्रिया के आधार ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> है कारण आयु अधिक और न्यून का,कर्मों की द्रव्य जनित शुद्धि - अशुद्धि के आधार ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">88.कर्मरूप में अपने धर्म का करे जो मनुष्य ह्रास,क्षीण हो जाए उस मनुष्य की आयु,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> वह कर्मफल कहलाए ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">89.कर्मरुप में अपने धर्म का करे जो वृद्धि व्यवहार,वृद्धि हो जाय उस मनुष्य की आयु</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> उसे भी कर्मफल कहलाए ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">90.जो जिस अवस्था में करे जैसा कर्म,वह उस अवस्था में वैसा फल पाए ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> बाल्यावस्था का कर्म मिले बाल्यावस्था में</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> युवावस्था का कर्म मिले युवावास्था में</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> वृद्धावस्था का कर्म मिले वृद्धावस्था में ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">91.करे जो अनुष्ठान धर्मं का,शास्त्रानुकूल आरंभ से,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> होता है वह मनुष्य ,शास्त्रवर्णित आयु का भागी ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">92.अनुभव करे जीव मर्मघाती वेदनओँ का,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> जब वह मरणासन्न अवस्था को प्राप्त करे ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> .हे लीला !</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">93. शरीरांत समय होते हैं तीन तरह के मुमुक्षु ,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> मूर्ख धारणाभ्यासी और युक्तिमान ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">94. जो करे अभ्यास दृढ़ता से धारणा का ,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> वह सुख पूर्वक गमन कर जाए, वह मुमुक्षु धारणाभ्यासी कहलाए ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">95. जो मुमुक्षु अभ्यास करे युक्ति का,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> वह भी सुख पूर्वक गमन कर जाए,वह मुमुक्षु युक्तिमान कहलाए ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">96. शरीरांत जो न करे अभ्यास धारणा और युक्ति का,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> वह अधोगति को जाए वह मुमुक्षु मूर्ख कहलाए ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">97.जो होते है विषयी पुरुष वासना से होते है वह दिन जड़ से कटे हुए कमल के सामान</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">98. बुद्धि जिसकी सुसंस्कृत नहीं,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> जो करे सेवन दुष्ट संगति का, </span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">अनुभव करे वह जीव अंतर्दाह का ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">99. होती है उसकी दयनीय दशा, </span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">जब कंठ उसका घुरघुराहट करे, </span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">जब उलट हो जाए आखों की पुतलियाँ,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> जब रंग शरीर का विकृत हो जाए ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">100. छा जाता है अन्धकार आँखों में, </span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> वाचा हो जाती है जड़वत तब क्षीण होती हैं शक्तियाँ इन्द्रियों की असमर्थ विषयों के ग्रहण में,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> और नाश होती है कल्पनाशक्ति भी तब ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">101.मूर्छित होता है तब यह जीव और बंद होती है गति प्राण वायु की, होता है पाषाणवत जीव , </span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> मोह संवेदन और भ्रम में, </span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> फिर प्राप्त करता है जड़ता को यह जीव ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> यही नियम आरम्भ से सृष्टि का है ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">102.किया तय यह ईश्वर ने सृष्टि के आदि में ही, </span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> सुख-दुखादि प्रारब्ध भोग रूप और कर्म जीव का ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">103. निकलती है वायु बाहर, जिस समय नाड़ियों से,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">नहीं करती फिर से वह प्रवेश उन नाड़ियों में, </span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">रुकता है स्पंदन उनका, शून्यमय हो जाती है तब,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">शरीर से वियुक्त होती है नाड़ी, तब मर जाता है यह शरीर ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">104. नहीं मिल सकता छुटकारा जन्म - मरण का,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> जब तक रहे वास मनुष्य में अविध्या का,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> होती हैं जेसे गांठे लता के बीच,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> होता है जन्म - मरण चेतन सत्ता के बीच ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">105. समझता है जब जीव, भ्रम वश प्रपंच जगत को,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">होता है रहित पूर्णतया वासनाओं से और विमुक्त हो जाता है ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">106. सत्य है केवल विमुक्त आत्मा स्वरूप, असत्य है सब कुछ इसके अतिरिक्त सारे रूप ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">107. है चैतन्य शुद्ध और नित्य वास्तव में, न होती है उत्पत्ति उसकी न होता है विनाश उसका ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">108. वह स्थित है सभी में फिर हो स्थावर, जंघम, आकाश, पर्वत और वायु ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">109 होती है प्राण वायु की गति अवरुद्ध, तब शरीर जड़ मृत कहलाए ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">110. होती है प्राण वायु कारण रूप महा वायु में विलीन, तब वासना रहि त चेतन आत्मा तत्व में हो जाये लीन ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">111. संयुक्त हो जाते है वासनाओ से वायु के समान जब चेतन गंध मिल जाती है, शरीर के मरने के बाद, जो करते हैं लौकिक व्यवहार उसे लोग प्रेत कहते हैं ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">112. प्रेत छः प्रकार के होते हैं, साधारण पापी, मध्यम पापी, स्थूल पापी, सामान्य धर्म वाले, मध्यम धर्म वाले वाले उत्तम धर्मात्मा ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">113. कर्म करे जैसे - जैसे यह शरीरादि जीव, अनुभव करे वैसे - वैसे हर प्रेतात्मा जीव । </span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">114. घूमते हैं यह जीव अलग - अलग योनियों में अपने अपने कर्म के फल से ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">115. अपने - अपने कर्मों का फल भोगने कई जाते हैं, स्वर्ग लोक में कई जाते हैं नर्क लोक में, फिर संसार चक्र में आते हैं पुनः भटक - भटक कर निर्दिष्ट योनियों में ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">116. उत्पन्न होते हैं धान के अंकुर में,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">फिर क्रमशः बढ़कर आते हैं फल में,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">अन्न के द्वारा प्रवेशता हैं पुरुष में,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">होता हैं परिणीत शुक्राणु के रूप में,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">जाता हैं यह शुक्राणु माता के गर्भ में,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">फिर जन्म लेता हैं बालक के रूप में,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">करता अनुभव जवानी, वृद्धावस्था का और होती है व्याधि बुढ़ापे में और होता है मरण बुढ़ापे में ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">117. होती है प्राप्त मूर्छा फिर से मृत्यु जनित, जब करते है पिंड दान अपने ही स्वजन, होती है प्राप्ति फिर से सूक्ष्म शरीर की ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">118. जब तक प्राप्त न होता मोक्ष एक बार, तब तक अनुभव करता वह इस कर्म का बार बार ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">119. होती है प्रविष्ट वायु जब प्राणियों के शरीर में, चेष्टा करते है अंग तब कहते हैं उसे जीव शरीर में । </span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">120 होती है वही चेतना वृक्ष, स्थावर, जंघम आदि प्राणीयों में, पर होते हैं वह चेष्टाहीन वायु की अनुपस्थिति में। </span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">121. हैं समान यह सबके भीतर परमात्मा का चेतन स्वरूप, फिर वह हो जड़ चेतन या हो स्थावर जंघम का स्वरूप ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">हे लीला ! </span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">122. हुई मृत्यु राजा विदुरथ की उस युद्ध में, फिर जीव के अन्दर इच्छा प्रकट हुई ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">123. दिखाई दिया पुष्पाच्छादित राजा पद्म का शव, प्रबलता हुई हृदयांतर्गत पद्मकोश में जाने की ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">कहते है वशिष्ठजी हे राघव !</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">124. दूर हुए सारे संताप लीला के मन में, उदित हुआ ज्ञान रुपी सूर्य फिर लीला के मन में ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">125. हुआ चित्त विदुरथ का विलीन, वशीभूत हुआ मृत्युकालिक मूर्छा मे, उलट हो गयी आँखों की पुतलियाँ, होंठ सूख कर श्वेत हुए, मूर्छित हुईं सारी इन्द्रियाँ, और परित्याग किया सूक्ष्म प्राण ने शरीर का । </span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">126. दिव्य दृष्टि से देखा देवियों ने, जीव को आकाश मार्ग से जाते हुए, अनुसरण किया दोनों देवियों ने, यमराज की नगरी तक ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">बोले यमराज ....</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">127. यह योनि मिले फिर उस जीव को, उसके कर्म फलों के आधार पर। </span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">128. विचार किया यमराज ने यहाँ पर, है पुण्य कर्म का अधिकारी राजा,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> अनुष्ठान करता था यह सच का, पाप कर्म कभी किया नहीं ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> मुक्त करो इस पुण्य जीव को, वह शरीर पद्मकोश जा सके ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">129. चले तीनों फिर यम द्वार से प्रविष्ठ हुए लीला के अंतःपुर । </span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">130. छोड़ि जीवात्मा सरस्वती माँ ने विदुरथ कि, प्रविष्ठ हुआ विदुरथ राजा पद्म के शरीर ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">131. पुनः जीवित हो उठे राजा, और माँ ने आशीर्वाद दिया ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">132. अंतर्ध्यान हुई फिर माता और लीला को भी वरदान दिया । </span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">133. आलिंगन किया लीला ने राजा को, सब आनंद से विभोर हुए ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> वशिष्ठ जी बोले वत्स राम !</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> वर्णन किया यह लीलोपाख्यान मैंने दृश्य दोष रूप निवृत्ति के लिए, उत्पन्न हुई यह अनन्त सृष्टि</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> माया रूपी संकल्प से ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> 134. जब हो जाता हैं परमात्मा स्वरूप का ज्ञान, तब भीतर जग जाता हैं चेतन पुरूष का भी ज्ञान ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> फिर न रहता हैं कथन और उसे सिद्ध करने का अभिमान, और मिट जाते हैं प्रमाता, प्रमेय और प्रमाण ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">135. जब हो जाता हैं परमात्मा स्वरूप का ज्ञान तब मिट जाता हैं परम तत्व का अज्ञान ।</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">136. होता हैं विलीन कर्ता, कर्म और कार्य का स्वरूप,</span></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;"> और होती है जीवात्मा भी विलीन, अपने ही परमात्मा स्वरूप ।</span></div>
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Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02317505440579481583noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7018758742599458739.post-54920768240895829552012-12-20T23:32:00.001-08:002014-07-01T22:51:28.453-07:00Brahma<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">There is a reason behind every action.Every action take place in a foam of sankalpa. Now duration of sankalpa is based on intensity to know the reason. Once the reason fulfilled the action is over. So the life of every action is based on the intensity of the reason. Now the power of sankalpa decide the life of action. If we observe the life cycle every jiva come to this planet for definate time, for definate reason and for definate action. Once this cycle is over jiva enter in to another cycle with different reason, sankalpa and action. In every life jiva enjoying the senses. Senses stuckup in to vasanas or happiness of that senses and demanding again and again. Now jiva creates sankalpa to fulfill this senses again and again. Now life got reason to come again and again to fulfill this desire of senses. For satisfaction of this desires mind enter in to ( shath Vikara ) kam, krodh, moha, lobh,lalach,matsar Because of shath Vikara jiva started to create negative karma and break the rule of nature. So inside the mind thousands of sankalpa pops up in foam of thought and also drops down because of no proper reason. When reason and action align then sankalpa take place and at the same time mind dicided the life of action. Here Vashisthaji told Rama that this srusti pops up with the sankalpa of brahmaji with the time duration of kalpa, and also give the same power to every individual to create own srushti and also gifted endless desire with it. Vashisthji says without dispassion no one can understand this pricious knowledge. To come out from desires one should practice the dispassion. To reach to the dispassion you have to be controlled and pulled your senses inward like tortoise. If you successfully practice this yog with calm mind then both reason and action vanished and sankalpa auutomaticaly drop and you will reach level of Brahma. Only Brahma is able to see brahma ( brahma hi brahma ko dekhta hai )</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br></div>
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