Friday, 8 November 2013
Secularism
What is secularism? Very wrongly interpret by politician and taking maximum advantage of this word. With there own definition they divide the nation and rule on nation. Every political party has focus to one cast or religion to win the election. No one even has a right to talk about secularism. But still they make fool to the people in the name of secularism. Secularism means distribute the benefits to the people without any cast or religious differences. Work on base of humanity. Don't give advantage to particular cast and religion. Equal distribution to all religion according to there skills and intelligence
Saturday, 7 September 2013
संत की पहचान
संत और समाज एक दुसरे के परियाइ है। संत का जन्म एक समाज में से ही होता है। और यही समाज के हित की रक्षा का दाइत्व संत का है।संत का घर्म लोगों के चरीत्र की रक्षा करने का है और भटके हुए को मार्ग पर लानेका है।जब समाज में और लोगों के मन में विकृति बढ़ती है तो ऊसपर अंकुश लाने का कायॅ भी संत का है।मन में उठे हुए विचार और भावना के स्वार्थ से दुसरो को दुख न पहोचे एसे संस्कार देने का कायॅ भी संत का है।। अगर इस तरह का आचरण आप करते हो तो आप भी संत ही हो।। अगर हम डर से,भयभीत हो कर या चमत्कार से संत की शरण में जाते है और श्रध्घा रखते है तो यह हमारी बहुत बड़ी भुल है। इस तरह रखी हुइ श्रध्धा को अंधश्रध्धा कहते है।। श्रध्धा याने गुरू के वचन का पालन करना और उनके आचरण का अनुसरण करना ।श्रध्धा तो अंध ही होती है, पर अपने शिष्य की श्रध्धा पर अतुट विश्वास बनाकर रखने का कायॅ गुरूजन का है । अगर यही गुरूजन की कथनी और करनी में अंतर अा जाता है तो यही श्रध्धा अंधश्रध्धा बन जाती है ।और एसे गुरूजन अपने ही शिष्य की श्रध्धा के साथ विश्वासधात करते है ।। कीसी भी प्रकार के भय,डर और चमत्कार के बगैर हमारे भीतर प्रेम के द्वारा जो आत्म विश्वास और श्रध्धा बढ़ाते है उन्हे सतगुरू कहते है। जहाँ श्रध्धा की कमी होति है वहाँ असुरक्षित ता का भाव जग जाता है ।और अनेक प्रकार की शंका,कुशंका मन में जग जाती है ।यही शंका कुशंका मघुर संबंधों में कटुता पैदा करते है। इसी वजह से कइबार संबंध टुट भी जाते है ।। शंका कुशंका और असुरक्षित भावना हमें लोभ,लालच,मोह,क्रोध,अहंकार और असत्य के भंवर की और ले जाती है ।हमारा मन अपनी ही शंका को सत्य पुरवार करने के लीए असत्य का सहारा लेता है। और वही सत्य है उसका प्रमाण खुद को दे देता है । इसतरह मन खुद के बनाए हुए भंवर में फँस जाता है ।। मन अपनी पाँच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से खुद के वासनारूपी अांतर सुख को प्रत्यक्ष भोग ने हेतु अपनी ही पाँच कर्मेन्द्रियाँे को आदेश देता है। तब यह मन अपनी सारी शक्तिओ को एकत्रित करके छल या बल के माध्यम से क्षणीक सुख हाँसिल करता है । संत वो है जो अपनी पाँच ज्ञानेन्द्रियों को कछुअे के भाती अपने अंकुश में रखता है और दुसरो को अंकुश मैं रखना सीखाता है । जब भी हमारा मन उलझनो में फँसता है या जीवन से दुखी हो जाता है तब वह कृपा का, श्रध्धा का सहारा ढुंढता है । हमारी मजबुरी का फ़ायदा उठाकर डराकर या चमत्कार दीखाकर ऐसे ठग संत के वेशमें हम पर हावी हो जाते है ।और हमसे पैसों की या अपने शरीर सुख की हवस को भोगते है । उलझन और दुख दुर करने की लालच मैं हम भी खुद को लुटाते रहते है ।। जीनके सानिध्य से या मात्र चिंतन से मन में शांति और आत्मविश्वास का अहसास होता है वही संत है ।।
Wednesday, 14 August 2013
आझाद भारत
आझाद भारत को फीर आझादी की ज़रूरत हुआ भारत आझाद अंग्रेजों कि हुकुमत से, पर नहीं हुआ आझाद राजनीति की कुटनितीओं से। कानुन बनाया अंग्रेजों ने, अपने हित की रक्षा के लीए, अब राजकारणी बनाते है कानुन अपने हित की रक्षा के लीए।। अशीक्षीत और गंवार समजते है हम मात्रुभाषा के रक्षक को,समजते है उसे शीक्षीत,जो बोलता है अंग्रेजी के चार शब्द को ।। अपने ही देश में गौरांवित होने से डरता हुं, हीन्दभाषी होके खुद हिन्दु बोलने से डरता हुं । नहीं है मुझे सोचने की अाझादी, नहीं है मुझै बोलने की आझादी, फीर भी कहता हुं मैं आझाद हुं ।। आझाद भारत को फीर आझादी की ज़रूरत
Tuesday, 29 January 2013
LEELOPAKH YAN,
1. पूर्व काल में भूतल का राजा, नाम उसका पद्म नाम ।
बड़ा ही विवेकशील और विद्वान, सद्गुणी और गुणों की खान ।
2. था लीला उसकी पत्नी का नाम, वह सुंदरी लक्ष्मी के समान,
आया उसके मन में विचार, करूँ कैसे राजा को अजर अमर समान ।
3. उसने पुछा ब्राह्मणों से सवाल, उपाय अमरत्व का बताओ।
बोले ब्राह्मण !
मिले सिद्धियाँ जप-तप नियम से, नहीं है हमें अमरत्व का ज्ञान,
लीला ने लिया संकल्प सिद्धि का, शुरू किया जप तप और ध्यान,
प्रसन्न हुई सरस्वती माता, दिया माता ने मनवांछित वरदान ।
4. किया जय-जयकार माता का, माँगा उसने दो वरदान ।
छूटे जब शरीर पति का, जीव अन्तःपुर में रुक जाए,
अभिलाषा जब-जब दर्शन की करू तब-तब माँ प्रकट हो जाए ।
5. माँ ने कहा पूर्ण हो तेरी अभिलाषा, पूर्ण हो तेरा अंतर का ध्यान ।
6. काल चक्र के चलने पर हुआ शत्रु का आक्रमण एक दिन ।
घायल हुआ राजा युद्ध में, धराशायी हुआ शरीर उस दिन ।
7. अंत:पुर में लाए राजा को, छूटा शरीर राजा का उस दिन,
विहवल हुई लीला वियोग से, तब माता ने अनुकम्पा की ।
8. सलाह दी माता ने लीला को, ढक दे शव को फूलों के ढेर में,
जीवित होगा यह शव कुछ दिन में, संभालेगा दायित्व फिर
पति के रूप में ।
9.स्मरण किया लीला ने माँ का, हाजिर हुई माँ वचन से, बोली लीला,
मुझे ले चलो पति के पास, न जी पा बिन पति की आस ।
10. बोली सरस्वती माता, सुमुखी ! एक शुद्ध चेतन परमात्मा आकाश, दूजा है मन रूप आकाश, तीसरा है सुप्रसिद्ध भूताकाश ।
11. तुमने पूछा पति का स्थान, अब वह है चेतन आकाशमयकोष ।
12. करेगी जो तू एकाग्र मन चिंतन तब करोगी अनुभव आकाश, स्थित हो जाओ उस परब्रह्म चेतन आकाश, तब पाओगी पति का साथ ।
13. सुनकर लीला स्थित हुई निर्विकल्प समाधि, देखा राजा पद्म को सिंहासन था वह देह ,गेह और वैभव से संपन्न ।
14. इतने में लीला प्रविष्ट हुई आकाश से, देखा लीला ने सबको, पर न देखा किसी ने उसको ।
15. पाया वैसा ही जैसा था पहले से, चिंतित हुई लीला तब, जब देखे नए लोग पहले से ।
16. टूटी समाधि जब लीला की, पाया सब को सोया हुआ पहले से ।
17. लगाया सबको अपने कार्य में, प्रसन्न हुई लीला मन ही मन में, फिर पास गयी लीला फूलों के ढेर,
पाया शव वहीं पर राजा का ढेर ।
18. जो देखा समाधि रूप आकाश जगत में, वही देखा आज इस वास्तविक जगत में ।
19. जैसे स्थित होता है पर्वत, दर्पण के बाहरी और भीतर के रूप में,
वैसे ही प्रतीत होती है सृष्टि, चेतन आकाश रूपी बाहरी और भीतर के रूप में ।
20. याद किया लीला ने माँ को, पूछी विडम्बना अपने मन की ।
21. कौन सृष्टि है भ्रांतिमय और कौन सृष्टि है वास्तविक ?
22. यह त्रिलोकी का प्रतिबिम्ब वैभव, है स्थित बाहर भी और भीतर भी ।
23. समझती हूँ मैं इस सृष्टि को सच, जो प्रत्यक्ष है,और कृत्रिम समझती हूँ उस सृष्टि को जहाँ
मेरे पति विराजमान हैं। नहीं होती सिद्धि वहाँ, देश, काल और व्यवहार की ।
24. कहा देवी ने, सुन प्रिये! नहीं होता उदय कभी कारण से भिन्न कार्य का, नहीं होती उत्पन्न सृष्टि अकृत्रिम सृष्टि से कदापि कृत्रिम सृष्टि ।
25.नहीं है भिन्न यह असत सृष्टि, उसके ही आश्रयभूत चेतन आत्मा से,
है आश्रय यह सभी जगत का, चेतनतत्त्व परब्रह्म ।
26.जैसी करे जीव भावना, उस रूप में भाषित हो जाए ।
27.देवी ने कहा, सुन सुमुखी, मेरी यह बात---
28.पूर्व समय में एक ब्राह्मण था, नाम था उसका वशिष्ठ,
उसकी सुन्दर, सुशील पत्नी थी, नाम था उसका अरुंधती ।
ब्राह्मण के मन नित्य स्वप्न रहा, बनूँगा मैं भी कभी एक राजा
प्रिये ! वही ब्राह्मण बना अब राजा पद्म, और अरुंधती बनी लीला ।
यह सृष्टि क्रम तुम्हारा पूर्व जनम का, कठिन है अब यह कहना,
कौन सृष्टि है भ्रमपूर्ण और कौन सृष्टि है भ्रम रहित ?
29.यही वर माँगा था अरुंधती ने मुझसे तब, जब जीवात्मा ब्राह्मण की भी स्थित हुई अंत:पुर में ।
30. छोड़ा पत्नी ने शरीर तब ध्यान से,पहुँची सूक्ष्म शरीर से पति के पास, वह पति-पत्नी तुम ही हो ।
31. होती है स्मृति लुप्त स्वप्न में जाग्रत काल की, उदित होती है दूसरी स्मृति स्वप्न में जाग्रत काल की ।
32. उदित हुई तुम दोनों की पूर्व जन्म की स्मृति स्वप्न में पूर्व काल की, नष्ट हुई तुम दोनों की पूर्व जन्म की स्मृति जागरुकता में पूर्व काल की ।
33. पर विपरीत हुआ दूसरी स्मृति से, वह असत्त उत्पन्न हुआ ।
34. है यह जगत आभास मात्र सृष्टि की प्रतीति से, वैसे ही क्षण, कल्प भी आभास मात्र, आदि की प्रतीति से ।
नहीं है वास्तविक क्षण कल्प भी आदि की प्रतीति से ।
35. बोली लीला देवी से---
36. हे माँ ! ले चलो मुझे मेरे पूर्व जन्म में, वह पर्वतीय गाँव और घर में, देखना चाहती हूँ उस सृष्टि को,
मिलना चाहती हूँ उस ब्राह्मण-ब्राह्मणी से ।
37. कहा माँ ने अगर देखना चाहती हो उस पूर्व सृष्टि को, फिर त्याग करो यह देहाभिमान । है रुकावट यह शरीर तुम्हारा, उस सृष्टि के गृहद्वार का ।
38. अगर देखना है तुम्हें वह ब्रह्म तो बनना पड़ेगा तुम्हें भी ब्रह्म, क्योंकि ब्रह्म ही ब्रह्म को देखता है ।
जो नहीं है ब्रह्म स्वरूप, वह कैसे देखेगा ब्रह्म का रूप ?
39. करते हैं केवल वही उस परम पद का साक्षात्कार, जो अद्वैत को अद्वैत भाव से जानता है ।
40. बारम्बार जो करे अभ्यास ब्रह्म ज्ञान का, स्थित होता वह दृढ़ अद्वैत भाव से ।
41. जब तक न हटे द्वैत, द्वंद्व और भेद मन से, तब तक न पाओगे अद्वैत का ज्ञान ।
42. हे चंचले ! स्वभाव से अविचार आए और विचार से उसका नाश हो जाए ।
43. होती है जब ब्रह्म की सत्ता तब न रहे अविचार और अविद्या ।
44. न कहीं अविचार है न कहीं अविद्या, न कहीं बंधन है न कहीं मोक्ष ।
45. यह जगत है केवल बोधस्वरूप और परोक्ष ।
46. किया जब तुमने विचार, तो पाया बोध का स्वरूप, बीज बोध का किया अंकुरित चित्त में और किया वासना का क्षय ।
अभाव हुआ द्रष्टा, द्रश्य और द्रष्टि छूटा राग और द्वेष, उत्पत्ति हुई निर्मूल संसार की, स्थिर हुई निर्विकल्प समाधि पूर्णतः।
47. होता है शरीर स्वप्नावस्था का शांत, जब हो जाता है हमें स्वप्न का ज्ञान ।
48. जो समझते हैं शरीर जागरूक अवस्था में स्वप्नवत शांत, क्षीण होती हैं उसकी वासनाऐं भी स्वप्नवत शांत।
49. जब स्थूल शरीर में होती है अहम् भावना भी शांत,
तब अनुभव होता है अहम् भावना का सूक्ष्म शरीर में भी शांत ।
50. जब होती है अवस्था जागृत मन की, वासना के बीज से रहित, तब होता है मुक्त यह जीवन और वासना से रहित ।
51. जब हो जाती हैं वासनाएँ सुप्त और विलीन, सुषुप्ति कहते हैं उस निद्रा को ज्ञानी और ब्रह्मलीन ।
52. करे जो क्षय वासनाओं का अपने मन की अवस्था में, पहुँचता है वह ब्रह्मज्ञानी तुर्य रूप की अवस्था में ।
53. लीला इस तरह जब अभ्यास करो तुम पूर्णता से, तब ब्रह्मभ्यासी हो जाओगी ।
कहते हैं वशिष्ठजी - हे रघुनन्दन !
लगाई समाधि दोनों देवियों ने राजा के शव के पास ।
हुई समाधि निर्विकल्प, बाह्य ज्ञान शून्य हुआ, जगत उन में तिरोहित हुआ, बोध हुआ बिन सत्ता का, लिया संकल्प चिन्मय चित्त में और आकाश में उड़ने लगीं ।
54. देखे विभिन्न लोक और विभिन्न दृश्य, देखा वह स्थान जहाँ वशिष्ठ का घर था ।
55. किया स्वागत दोनों का लीला के ही पुत्र ने, बताया वृतांत्त ब्राहमण मात-पिता का, फिर पूछा निवारण इस शोक का, कि कैसे गए मात-पिता स्वर्गलोक ?
56 आशीर्वाद दिया माता ने,किया निवारण उस के सुख-दुःख का, और हो गए दोनों अदृश्य उस आकाश जगत में ।
57. कहा लीला ने फिर देवी से, कृपा हुई आपकी मुझ पर, स्मृति आई मुझे पूर्व जन्मों की ,
उत्पन्न हुई मैं विभिन्न योनिओं और परिवारों में ।
58. अब इच्छा हुई मेरी, पति के नगर जाने की, चलो हम दोनों वहीँ चलें,
और गमन किया आकाश मार्ग से ।
59.पहुँचे दोनों सूर्यप्रकाश से परे, पहुँचे ब्रह्माण्ड के भी पार, देखा जल का आवरण वहाँ पर ,
देखा अग्निमय आवरण भी वहाँ पर ।
60.देखा उससे अधिक आकाश का आवरण,
तदन्तर देखा विशुद्ध चिन्मय आकाश
न था उसका आदि, मध्य और अंत ।
ऐसे लीला ने अनन्त ब्रह्मांडों को देखा, जिसमें करोड़ों सृष्टियों को भी देखा,
अनेक सृष्टि कर्ताओं को भी देखा,
संपूर्ण बुद्धि का वैभव भी देखा ।
61. अन्तःपुर में पुष्पों से आच्छादित महाराज पद्म का शव देखा,
समाधि अवस्था में स्थित,पास बैठा खुद का स्थूल शरीर देखा ।
62.गई लीला उस लोक में फिर ,जहाँ उसका पति पद्म था ।
63गई लीला जम्बूदीप के भारतवर्ष ,जहाँ पिता का राज्य था ।
64.किसी ने किया आक्रमण राज्य पर ,युद्ध देखने रूकीं दोनों देवी वहाँ पर ।
65.दिखा राजा पद्म वहाँ पर ,यहाँ पर वह राजा विदुरथ था ।
66.विदुरथ ने किया मुग्दर का प्रहार ,आरंभ हुआ अस्त्र शस्त्र से युद्ध ।
67.खड़े और डटे थे दोनों राजा वहाँ पर ,सिन्धुराज और विदुरथ अपने अपने पक्ष पर ।
68.फिर दोनों के सेनापतियों ने किया विचार ,युद्ध का बीच में ही किया विराम ।
69.खिन्न होकर राजा विदुरथ,दो घड़ी में सो गए कक्ष में ।
70.किया प्रवेश लीला और सरस्वती ने,राजा विदुरथ के कक्ष मे ।
71.निद्रा भंग हुई राजा की,किया विराजमान दोनों को आसन पर ।
72.फिर जगाया मन्त्री को नींद से,पूछा राजा को जन्म का वृतांत ।
73.इक्श्वान्कू वंश के हैं राजा वंशज,नवमी पीढ़ी मैं उत्पन्न हुए नभोरथ ।
74.उनके पुत्र हुए विदुरथ,दश वर्ष की आयु में संभाला राज्य का भार ।
75.पिता चले गए वनवास,धर्मपूर्वक संभाला राज्य का अधिकार ।
76.दिया माता ने आशीर्वाद राजा को,जिससे हुआ पूर्व जन्म का ज्ञान ।
77.विस्मित हुआ राजा मन ही मन,देखा संसार की माया का हाल ।
78.करवाया राजा को ज्ञानामृत पान,माँगी विदा देवियों ने राजा से ।
79.तब माँगा वर राजा ने देवी से,जाऊँ जिसलोक में मैं,
पाए वही लोक यह मंत्री और कन्या।
माँ सरस्वतीने कहा---
80.हे सम्राट ! है निश्चित तुम्हारी मृत्यु ,युद्धके इस संग्राम में।
81. होगा प्राप्त तुम्हें अपना प्राचीन राज्य ,आना होगा तुम तीनों को
वहाँ शव रूप शरीर में।
82.फिर तुम्हें सूक्ष्म शरीर से आना होगा उस प्राचीन नगर में।
83.दूत आया इतने में राजा का,कहा- शत्रु राजा ने किया युद्ध का आहवान,
किया प्रवेश राजा ने शत्रु सेना में और घायल हुआ वह घायल युद्ध में।
84.किया महल में प्रवेश जब,श्वांस मात्र ही शेष थी शरीर में।
फिर कहा माँ सरस्वती ने लीला से सुनो प्रिये !
85.अनुभव क्या होता है जीव को मृत्यु के पश्चात् ?
क्रम कर्मफल का क्या होता है मृत्यु के पश्चात् ?
86शांत होंगे संशय तुम्हारे,जब तुम सुनोगी इसे प्रिये ।
87.है कारण आयु अधिक और न्यून का,देश काल और क्रिया के आधार ।
है कारण आयु अधिक और न्यून का,कर्मों की द्रव्य जनित शुद्धि - अशुद्धि के आधार ।
88.कर्मरूप में अपने धर्म का करे जो मनुष्य ह्रास,क्षीण हो जाए उस मनुष्य की आयु,
वह कर्मफल कहलाए ।
89.कर्मरुप में अपने धर्म का करे जो वृद्धि व्यवहार,वृद्धि हो जाय उस मनुष्य की आयु
उसे भी कर्मफल कहलाए ।
90.जो जिस अवस्था में करे जैसा कर्म,वह उस अवस्था में वैसा फल पाए ।
बाल्यावस्था का कर्म मिले बाल्यावस्था में
युवावस्था का कर्म मिले युवावास्था में
वृद्धावस्था का कर्म मिले वृद्धावस्था में ।
91.करे जो अनुष्ठान धर्मं का,शास्त्रानुकूल आरंभ से,
होता है वह मनुष्य ,शास्त्रवर्णित आयु का भागी ।
92.अनुभव करे जीव मर्मघाती वेदनओँ का,
जब वह मरणासन्न अवस्था को प्राप्त करे ।
.हे लीला !
93. शरीरांत समय होते हैं तीन तरह के मुमुक्षु ,
मूर्ख धारणाभ्यासी और युक्तिमान ।
94. जो करे अभ्यास दृढ़ता से धारणा का ,
वह सुख पूर्वक गमन कर जाए, वह मुमुक्षु धारणाभ्यासी कहलाए ।
95. जो मुमुक्षु अभ्यास करे युक्ति का,
वह भी सुख पूर्वक गमन कर जाए,वह मुमुक्षु युक्तिमान कहलाए ।
96. शरीरांत जो न करे अभ्यास धारणा और युक्ति का,
वह अधोगति को जाए वह मुमुक्षु मूर्ख कहलाए ।
97.जो होते है विषयी पुरुष वासना से होते है वह दिन जड़ से कटे हुए कमल के सामान
98. बुद्धि जिसकी सुसंस्कृत नहीं,
जो करे सेवन दुष्ट संगति का,
अनुभव करे वह जीव अंतर्दाह का ।
99. होती है उसकी दयनीय दशा,
जब कंठ उसका घुरघुराहट करे,
जब उलट हो जाए आखों की पुतलियाँ,
जब रंग शरीर का विकृत हो जाए ।
100. छा जाता है अन्धकार आँखों में,
वाचा हो जाती है जड़वत तब क्षीण होती हैं शक्तियाँ इन्द्रियों की असमर्थ विषयों के ग्रहण में,
और नाश होती है कल्पनाशक्ति भी तब ।
101.मूर्छित होता है तब यह जीव और बंद होती है गति प्राण वायु की, होता है पाषाणवत जीव ,
मोह संवेदन और भ्रम में,
फिर प्राप्त करता है जड़ता को यह जीव ।
यही नियम आरम्भ से सृष्टि का है ।
102.किया तय यह ईश्वर ने सृष्टि के आदि में ही,
सुख-दुखादि प्रारब्ध भोग रूप और कर्म जीव का ।
103. निकलती है वायु बाहर, जिस समय नाड़ियों से,
नहीं करती फिर से वह प्रवेश उन नाड़ियों में,
रुकता है स्पंदन उनका, शून्यमय हो जाती है तब,
शरीर से वियुक्त होती है नाड़ी, तब मर जाता है यह शरीर ।
104. नहीं मिल सकता छुटकारा जन्म - मरण का,
जब तक रहे वास मनुष्य में अविध्या का,
होती हैं जेसे गांठे लता के बीच,
होता है जन्म - मरण चेतन सत्ता के बीच ।
105. समझता है जब जीव, भ्रम वश प्रपंच जगत को,
होता है रहित पूर्णतया वासनाओं से और विमुक्त हो जाता है ।
106. सत्य है केवल विमुक्त आत्मा स्वरूप, असत्य है सब कुछ इसके अतिरिक्त सारे रूप ।
107. है चैतन्य शुद्ध और नित्य वास्तव में, न होती है उत्पत्ति उसकी न होता है विनाश उसका ।
108. वह स्थित है सभी में फिर हो स्थावर, जंघम, आकाश, पर्वत और वायु ।
109 होती है प्राण वायु की गति अवरुद्ध, तब शरीर जड़ मृत कहलाए ।
110. होती है प्राण वायु कारण रूप महा वायु में विलीन, तब वासना रहि त चेतन आत्मा तत्व में हो जाये लीन ।
111. संयुक्त हो जाते है वासनाओ से वायु के समान जब चेतन गंध मिल जाती है, शरीर के मरने के बाद, जो करते हैं लौकिक व्यवहार उसे लोग प्रेत कहते हैं ।
112. प्रेत छः प्रकार के होते हैं, साधारण पापी, मध्यम पापी, स्थूल पापी, सामान्य धर्म वाले, मध्यम धर्म वाले वाले उत्तम धर्मात्मा ।
113. कर्म करे जैसे - जैसे यह शरीरादि जीव, अनुभव करे वैसे - वैसे हर प्रेतात्मा जीव ।
114. घूमते हैं यह जीव अलग - अलग योनियों में अपने अपने कर्म के फल से ।
115. अपने - अपने कर्मों का फल भोगने कई जाते हैं, स्वर्ग लोक में कई जाते हैं नर्क लोक में, फिर संसार चक्र में आते हैं पुनः भटक - भटक कर निर्दिष्ट योनियों में ।
116. उत्पन्न होते हैं धान के अंकुर में,
फिर क्रमशः बढ़कर आते हैं फल में,
अन्न के द्वारा प्रवेशता हैं पुरुष में,
होता हैं परिणीत शुक्राणु के रूप में,
जाता हैं यह शुक्राणु माता के गर्भ में,
फिर जन्म लेता हैं बालक के रूप में,
करता अनुभव जवानी, वृद्धावस्था का और होती है व्याधि बुढ़ापे में और होता है मरण बुढ़ापे में ।
117. होती है प्राप्त मूर्छा फिर से मृत्यु जनित, जब करते है पिंड दान अपने ही स्वजन, होती है प्राप्ति फिर से सूक्ष्म शरीर की ।
118. जब तक प्राप्त न होता मोक्ष एक बार, तब तक अनुभव करता वह इस कर्म का बार बार ।
119. होती है प्रविष्ट वायु जब प्राणियों के शरीर में, चेष्टा करते है अंग तब कहते हैं उसे जीव शरीर में ।
120 होती है वही चेतना वृक्ष, स्थावर, जंघम आदि प्राणीयों में, पर होते हैं वह चेष्टाहीन वायु की अनुपस्थिति में।
121. हैं समान यह सबके भीतर परमात्मा का चेतन स्वरूप, फिर वह हो जड़ चेतन या हो स्थावर जंघम का स्वरूप ।
हे लीला !
122. हुई मृत्यु राजा विदुरथ की उस युद्ध में, फिर जीव के अन्दर इच्छा प्रकट हुई ।
123. दिखाई दिया पुष्पाच्छादित राजा पद्म का शव, प्रबलता हुई हृदयांतर्गत पद्मकोश में जाने की ।
कहते है वशिष्ठजी हे राघव !
124. दूर हुए सारे संताप लीला के मन में, उदित हुआ ज्ञान रुपी सूर्य फिर लीला के मन में ।
125. हुआ चित्त विदुरथ का विलीन, वशीभूत हुआ मृत्युकालिक मूर्छा मे, उलट हो गयी आँखों की पुतलियाँ, होंठ सूख कर श्वेत हुए, मूर्छित हुईं सारी इन्द्रियाँ, और परित्याग किया सूक्ष्म प्राण ने शरीर का ।
126. दिव्य दृष्टि से देखा देवियों ने, जीव को आकाश मार्ग से जाते हुए, अनुसरण किया दोनों देवियों ने, यमराज की नगरी तक ।
बोले यमराज ....
127. यह योनि मिले फिर उस जीव को, उसके कर्म फलों के आधार पर।
128. विचार किया यमराज ने यहाँ पर, है पुण्य कर्म का अधिकारी राजा,
अनुष्ठान करता था यह सच का, पाप कर्म कभी किया नहीं ।
मुक्त करो इस पुण्य जीव को, वह शरीर पद्मकोश जा सके ।
129. चले तीनों फिर यम द्वार से प्रविष्ठ हुए लीला के अंतःपुर ।
130. छोड़ि जीवात्मा सरस्वती माँ ने विदुरथ कि, प्रविष्ठ हुआ विदुरथ राजा पद्म के शरीर ।
131. पुनः जीवित हो उठे राजा, और माँ ने आशीर्वाद दिया ।
132. अंतर्ध्यान हुई फिर माता और लीला को भी वरदान दिया ।
133. आलिंगन किया लीला ने राजा को, सब आनंद से विभोर हुए ।
वशिष्ठ जी बोले वत्स राम !
वर्णन किया यह लीलोपाख्यान मैंने दृश्य दोष रूप निवृत्ति के लिए, उत्पन्न हुई यह अनन्त सृष्टि
माया रूपी संकल्प से ।
134. जब हो जाता हैं परमात्मा स्वरूप का ज्ञान, तब भीतर जग जाता हैं चेतन पुरूष का भी ज्ञान ।
फिर न रहता हैं कथन और उसे सिद्ध करने का अभिमान, और मिट जाते हैं प्रमाता, प्रमेय और प्रमाण ।
135. जब हो जाता हैं परमात्मा स्वरूप का ज्ञान तब मिट जाता हैं परम तत्व का अज्ञान ।
136. होता हैं विलीन कर्ता, कर्म और कार्य का स्वरूप,
और होती है जीवात्मा भी विलीन, अपने ही परमात्मा स्वरूप ।
Subscribe to:
Posts (Atom)