1.अनंत दृश्य है ब्रह्मरूप , बिना ज्ञान न जाए दृश्य स्वरूप । 2.कैसे पाएगा ब्रह्मरूप , जो फँसा है भ्रम में देहादी रूप। 3.जो पाएगा तत्त्वज्ञान का सार ,वो ही कर सकेगा भवसागर पार।
4. जो समझे समान वस्त्रादिक, स्त्री और शस्त्रों का स्पर्श, वही धीर पुरुष जानेगा, परम पद का अर्थ।
5. आहार से प्राण धरे, प्राण धरे जिज्ञासा का ज्ञान,
जिज्ञासा तत्वज्ञान धरे, छूटे जन्म- मरण का अज्ञान।
6. वही पाएगा मुक्ति, जो करे भोगों का त्याग,
केवल आत्मचिंतन, पुरुषार्थ, करे निग्रह मन इन्द्रियोँ का त्याग।
7. द्रश्य पर रहे द्रश्य की सत्ता, तब तक न पाओगे अद्रश्य का ज्ञान
जिसने जाना अद्रश्य का ज्ञान, उसी ने पाया तत्व का ज्ञान।
8. बोध ब्रह्म का उसी को देना, जिसने किया भोंगों का त्याग,
उसकी इच्छा शांत हुई, किया जिसने मन, वासना का त्याग।
9. वैराग्य विषय पर पाया जिसने, उसने पाया समाधि का स्वरूप ,
जीवन हुआ जिसका वासना रहित, उसने पाया मोक्ष का स्वरूप ।10. आश्रय निःसंकल्प का लिया, किया आभास असत्य देहादि भाव,
हुआ जिसका साक्षी चैतन्य भाव, स्थिर हुआ उसका ब्रहम स्थिति में भाव।
11. वृद्धि संसार से बढ़े जड़ता, बढ़े अखड़ता और अज्ञान,
जिस ज्ञान से बढ़े वैराग्य और ध्यान, उसी को कहते हैं ज्ञानी ब्रह्म ज्ञान।
12. जगत दिखे अविवेकी को सत्य, विवेकी देखे उसे मिथ्या स्वरूप ,
शांत धीर पुरुष देखे उसे शून्य रूप, ब्रह्म ज्ञानी देखे उसे ब्रह्म स्वरूप ।
13. जिसका चित्त द्रश्य में आसक्त न हो, वही ब्रह्म चित्त जीवन मुक्त कहलाए।
14. श्रवणता से बढ़े बोध का ज्ञान, ज्ञान से बढे समानता और ध्यान,
समानता से बढ़े जागरुकता में सुषुप्ति का भान, वही पाता है निर्विकल्प समाधि का ज्ञान।
15. जो माने संसार को अरण्य रण, वह शांत चित्त पुरुष कहलाए ,
अशांत चित्त पुरुष ही, अरण्य में भी संसार को फैलाए।
16. जैसे लता, तृण और काष्ठ प्रतिमा, रहे बंधन अबंधन में मौन,
वैसे मान अपमान और क्रोध भाव में, रहे तत्वज्ञानी भी मौन।
17. अधम स्थिति है बंधन की आस्था, उत्तम स्थिति है विषयों में अनास्था,
18. है देहादि दुख भिन्न,जैसे हो भिन्न देह में,
करे तत्वज्ञ पुरुष अनादर, वैसे ही भिन्न- भिन्न देह में।
19. अविवेकी माने जगत अनंत, विवेकी माने ब्रह्म अनंत,
निर अहंकारी का जीवन मुक्त, अनंत, जैसे आकाश निर्मल निःसंकल्प अनंत।
20. जुड़े जीव द्रश्य और वासना, बने भाव स्थूल- सूक्ष्म स्वरूप ,
जुड़े जब चैतन्य से चैतन्य का रूप, तब बने जीव पूर्णचैतन्य रूप।
21. विषय करे भोग की आशा, तब आत्मा जीव स्वरूप ,
विषय को मिले भोग से मुक्ति, तब जीव परमात्मा स्वरूप ।
22. द्रष्टा द्रश्य में स्थिर रहे तो पाए दुःख रूपी संसार,
द्रष्टा खुद में स्थित रहे, तो करे भव सागर पार।
23. अज्ञानी देखे विषय भाव रूप, चैतन्य, ज्ञानी देखे सर्व साक्षी स्वरूप ।
24. जैसे काल ,कर्म और वासना, कल्पना का आश्रय करे,
वैसे चिद्रुप परम तत्व, वैसे ही आसक्ति का स्वरूप धरे
25. जैसे जल में रहे चक्रवात, वैसे जीव संकल्प स्फुरण करे
बिना इच्छा बुद्धि चलन ही, जाग्रत सृष्टि स्वप्न सृष्टि धारण करे,
26. जैसे पवन रहे चपल चंचल, वैसे जल में रहे द्रव्य सार का आभास,
वैसे ही उत्पत्ति स्थिति और लय का, चिदाकाश के अन्दर आभास।
27. ब्रहम ही ब्रह्मा स्वरूप है, ब्रहमा स्वरुप है ब्रहम ,
वैसे ही जीव ही आत्मा स्वरुप है, आत्मा स्वरूप है ब्रह्म।
ब्रहम ही करे अनुभव आत्मा का, आत्मा करे अनुभव ब्रह्म
जो ज्ञानी करे अनुभव एकत्व का, वही ब्रह्म ज्ञानी है ब्रह्म।
28. कारण न दिखे कोई जगत के उद्गम का, है शांत अजन्मा ब्रह्म ही जगत का स्वरूप ,
जो बना के रखे सदा अपने मन को बोध रूप, वह ब्रह्म ज्ञानी पाए सदा जाग्रत सुषुप्ति तुर्य अवस्था का स्वरूप ।
29.जिसने पहचाना आत्मा का वास्तव स्वरूप ,उसी ने पहचाना अद्वितीय ब्रह्म रूप।
30. चेतना जो संकल्प करे वही जगत का रूप,
उदय हुआ जगत ही, है जगत पूर्ण ब्रह्म रूप।
31. अहंता और काल सत्ता, है जगत के दो बीज,
चित्त ब्रह्म की धरा पर, होता अंकुरित सृष्टि रुपी बीज।
32. परस्पर सम्बन्ध जैसे- दर्पण और प्रतिबिम्ब का, अनिच्छा ही सम्बन्ध वैसे, आत्मा के ही प्रतिबिम्ब जगत का।
33. द्रष्टा द्रश्य दर्शन है, चिदाकाश के ही रूप,
ये ही परमानन्द परब्रह्म रूप, बाकि सब भ्रान्ति स्वरूप ।
34. खुली आँख दृश्य समान, बंद आँख प्रलय समान,
द्रश्य- प्रलय का मध्य ही, परब्रह्म परमात्मा के समान,
35. टकराए जैसे तरंग समुद्र में और होती विलीन समुद्र में,
टकराए वैसे सर्व व्यवहार चिदाकाश में और होती विलीन चिदाकाश में।
36. जब तक न जाना स्वरूप अपना, तब तक चिदात्मा मोह धारण करे,
जैसे ही ज्ञात हुआ स्वरूप अपना, वैसे ही चिदात्मा मोक्ष धारण करे।
37. होती है प्रतीति हर द्रश्यमान के होने की, जो केवल भ्रम है,
पर नहीं होती प्रतीति परब्रह्म की, जो केवल सत्य है।
38. हर जीवात्मा की भावना, जब- जब चिदात्मा को धारण करे,
तब- तब अपने निमित्त भोगों के आधार से, वह अनुभव करे भिन्न- भिन्न जीव के आकार से।
39. बिना नाव के तीन समुद्र- अहंकार, देह, पुत्रादिक संसार,
छोड़े जो यह वासना के तीन विकार, हो जाये वो भव सागर पार।
40. जब तक रहे चित्त में वासना, तब तक वह मन कहलाए ,
वासना रहित मन ही ज्ञान रूप कहलाये।
41.जबतक रहे चित्त में वासना ,तबतक वह मन कहेलाए ,
वासना रहित मन ही ,ज्ञानस्वरूप कहलाए
42.इन्द्रिय देह में "मैं "का भाव ,स्त्री पुत्र में ममत्व का भाव
फिर कैसे रहे चित्त में शांति का भाव
43.मन ही समझे मन की बात ,मन ही जनमता मन ही बढ़ाता
ब्रह्मविध्या के ज्ञान से ,मन ही मोक्ष को पामता
44.जब चित्त करता विश्रांति से केवल द्रढ़ निश्चय
वह पाता परार्थ द्रष्टि से सत्य का परिचय
45.विवेक-अविवेक मनरूपी गंगा की दो धाराऐं
यत्न से करे मन में जो द्रढ़ निश्चय
तो बहे उसी दिशा मे जल धारा
46.इन्द्रिय रूपी रथ का, चित्त सारथी कहलाए।
दिशा-निर्देष सही करे तो ,वही परमतत्व कहलाऐ।
47.करे मन जो कामना ,तो मन अधोगति को जाए।
करे दुष्कर्म का त्याग जो ,तो मन कामना रहित हो जाए।
48.स्वप्न में स्वप्न को देखना ,स्वप्न ही स्वप्न का स्वरूप,
क्या सत्य क्या असत्य ,यह जगत ही भ्रम स्वरूप।
49. विस्तृत स्थिति जगत की ,भावना से ही हो जाए
मित्र, पुत्र, स्नेह, मोह की दशा ,भावना से ही फेलाए।
50.न पहचान सके सामान्य जन ,जब मृत्यु सामने आ जाए
न पहचान सके वो आयुष्य को ,जो रेत की तरह फिसल जाए ।
51. जो निश्चय अंतरात्मा करे, वह अखंडित ग्रहण हो जाए ,
ऐसा कुछ नहीं तीहुँ लोक में, जो द्रढ़ संकल्प से न आए।
52. भावना जैसी जिसकी बने, वैसों ही वह हो जाए,
इच्छा जैसी जिसकी बने, वह फलित हो जाए।
53. जीवन- मरण की इच्छा न करे, जो कोई तत्वज्ञ पुरुष,
सत्य-निष्ठा से व्यवहार करे, वही सर्वज्ञ पुरुष।
54. तरता है संसार वही, जो ज्ञान का चिंतन करे,
न मिल सके उसे मुक्ति, जो केवल वनवास कष्ट दायक तप धरे।
55. श्रुति ज्ञान की जो करे, वो बोध प्राप्त कर जाये,
अविचार रूप अनर्थ छोड़ के, द्रश्य आत्मा में द्रढ़ कर जाए ।
56. जो धनी रहे निंदा रहित, शूरवीर रहे शांत चित्त,
और समर्थ रखे सम दृष्टि सदा, वही तत्व ज्ञानी कह लाये।
57. मन के आकाश में होता है जिसका, मेघ रुपी अहंकार शांत,
उस धीर पुरुष के मन से उड़ता, मोह रुपी तुषार का अज्ञान।
58. जो केवल पकड़े चिन्तन और ज्ञान, छूट जाती है उसकी चिंता और अज्ञान,
59. मैं देह हूँ , मैं देह का हूँ , देह मेरी है, वह देहादि पुरुष अहंकारी कहलाए ,
में देह नहीं हूँ में देह का नहीं हूँ देह मेरी नहीं है, वह सहज पुरुष ब्रह्म ज्ञानी कहलाए ।
60. बचपन बीते मोह में, यौवन अत्यंत वेगशील,
आयुष्य बीते चंचल चपल, मृत्यु बीते कठिन।
61. काल खींचे आवक जावक पदार्थ को , वासना खींचे मोह संसार को ,
काल खींचे समग्र समूह जीव को , ब्रह्म ज्ञानी खींचे सार जीवन को ।
62. वासना रहित मन है मोक्ष का द्वार,
वासना से भरी इन्द्रिय है, बंधन का आधार।
63. जैसी जिसकी वासना, वैसा कर्म रूप पाए , जो रखे शम विचार, संतोष, साधु समागम, वह मोक्ष द्वार पार कर जाए।
64. जो करे अभ्यास से अनुभव हर पल, जो सुने शास्त्र और गुरु वचन हर पल,
वह संत पुरुष स्वरूपानंद कहलाए ।
65.जो करे उपेक्षा संसार की हर वक्त, जलाता है वह घर उसका ही हर वक्त,
66.सद विचार से तत्वज्ञान बढे, तत्वज्ञान से बढ़े आत्मानंद,
आत्मानंद से मन में विश्रांति बढे, विश्रांति से छूटे दुखों का द्वंद .
67. मिटती है भ्रान्ति, दारिद्य दुःख मरण की, जब होता है सद गुरु से समागम।
68. संतोष ही परम लाभ है, सत्संग है परम गति का स्थान,
सद विचार ही परम ज्ञान है, श्रम है परम सुख का धाम।
69. जब मन फँसता है मोह माया से, तब फैल जाती है अज्ञान की छाया,
जब मन जगता है ज्ञानतेज से, तब मन बढ़ता है ब्रह्मतेज से।
70. जब तक मन न समझा मिथ्या जगत को, तब तक वह न समझा तथ्य परम तत्व को,
जिस दिन माना शून्य जगत को, उस दिन पाया ब्रह्म तत्व को।
71. स्थिति जगत की न है खुद की सत्ता से, स्थिति जगत की है अधिष्ठान की सत्ता से,
72. जैसे समुद्र के गर्भ का जल, प्राप्त करता है तरंगों को,
वैसे परब्रह्म के गर्भ का जीव, प्राप्त करता है जीवन को।
73.जैसे अंश मात्र हैं तरंगें समुद्र की, तब भी वह समुद्र ही कहलाए ,
वैसे ही अंश मात्र है जीव परब्रह्म का, फिर भी वह परब्रह्म कहलाए।
74. जो पाया स्वप्न जगत में वही पाया संकल्प जगत में, जो पाया संकल्प जगत में वही पाया जागृत जगत में,
जो समझा भ्रान्ति जगत में वही समझा लीला जगत में, जो समझा लीला जगत में वही समझा ब्रह्मत्व जगत में।
75. जीव ब्रह्म है वो ब्रह्म ही को जाने, जो ब्रह्म ही नहीं वो ब्रह्म को कैसे जाने?
76. ज्ञान स्वप्न का होते ही,स्वप्न देह मिट जाए जागरुकता वासना की होते ही,जागृत वासना देह से मिट जाए ।
77. होती है सुषुप्ति तब, जब स्वप्न में वासना का बीज शांत हो जाए ,
होती है जीवन में मुक्ति तब, जब जागरुकता में वासना का बीज शांत हो जाए।
78. न होती कोई जीवन मुक्त की वासना, शुद्ध ब्रह्म ही होती है जीवन मुक्त की वासना।
79. बुद्धि जिसकी रंगी है वैराग्य के रंग से, वही रंगता है सबको आनंद के रंग से।
80. जैसी जिसकी भावना, वैसो अनुभव पाए,
जो भावना करे शहद में कटुता की, तो कटु रस को वह पाए।
जो भावना करे नीम में मधुरता की, तो नीम भी मधुर रस हो जाए।
81. जिसके ह्रदय में अज्ञान परब्रह्म का, वह अज्ञानी जगत और अहंम रूप को पाए।
82. चित्त विचारे द्वैत को, तो सब द्वैत मय हो जाए ,
और चित्त विचारे अद्वैत को तो सब अद्वैत मय हो जाए।
83. स्फुरण मात्र से चित्त में व्याधि करे संसार की, बिना श्र म ही ज्ञान औषध करे औषधि यही संसार की।
84. है जगत की उत्पत्ति मिथ्या, है जगत की वृद्भि भी मिथ्या
है जगत की अनुभूति भी मिथ्या , है जगत का लय भी मिथ्या ।
85. अनुभव करे सुख - दुःख का, जो दृष्टि रखे बाह्य की और,
समान समझे सुख- दुःख को जो योगी रहे अंतर्मुख की और।
85. जो रखे मन की भावना तीव्र वेग, न रोक सके उसे कोई भाव-अभाव का आवेग।
86. उठे मन में जैसे- जैसे आभास, वैसे ही बाह्य प्रत्यक्ष प्रतिभास,
87. कंगन है जब तक है सुवर्ण का भान, तब तक न दिखे कंगन का ज्ञान,
जैसे होवे कंगन का भान, फिर कैसे रहे सुवर्ण का ध्यान।
88. मन में रहे दृश्य का भान तब तक रहे जड़ता और अज्ञान,
जब मन को होवे सत्य का भान, तब जग जाए ब्रह्म का ज्ञान।
89.जैसे न रहे पुष्प से सुगंध अभिन्न,वैसे न रहे पुरुष से कर्म अभिन्न,
होती है उत्पत्ति दोनों की परमात्मा से, होती है लय दोनो की ही परमात्मा से।
90. मन करे बाह्य अनुसन्धान, तो कर्मेन्द्रिय प्रवृत्त, जो मन करे अंतर से अनुसन्धान सो कर्मेन्द्रियाँ निवृत्त ।
91. अवीध्या जगे कलंकपन से, तब संकल्प- विकल्प टकराए,
प्रकार अनेक परम संवित धरे, तब वह मन कहलाए ।
92. संकल्प- विकल्प का जो निर्णय करे, तब परम संवित स्थिर बुद्धि हो जाये,
93. कारण संसार के बंधन का, जब देह मिथ्या अभिमान करे,
कल्पना करे जब खुद की सत्ता से, तब वह अहंकार कहलाए ।
94. त्याग करे एक विचार का, दूजा विचार का स्मरण करे,
जो त्याग-स्मरण के चक्कर में रहे, तब वह चित्त रूप कहलाए।
95. कर्म
96. कल्पना
97. वासना
98. विद्या
99. स्मृति
100. श्रवण करे और स्पर्श करे, दर्शन करे भोजन करे सुगंध करी जो विचार करे,
वह जीव भाव कर्मेन्द्रिय से आनंद करे। वह इन्द्रिय कहलाए।
101, जो सत पदार्थ को असत करे, करे असत को सत
जो करे विकल्प मन में असत्ता का और करे सत्ता का मन में भाव।- वह माया कहलाए।
102. मलीन होता जब चित्त अज्ञान से, तब चित्त ज्ञान से दूर हो जाए,
जब भ्रान्ति बढ़े संसार रूपी मन में, तब जगत उत्पन्न हो जाए ।
103. जो सब प्राणी के भीतर समाए ,जो सब प्राणी के बाहय भी समाए ,
जो सत्ता-असत्ता में साक्षी है ,जो सर्व व्याप्त आकाश में है ,वह आकाशो में चिदाकाश है।
104. जो हर प्राणी का व्यवहार है ,जो कार्य कारण से श्रेष्ठ है ,जो करे कल्पना विस्तृत जगत में
वह चित्ताकाश कहलाए।
105. जो मेघ को आश्रयभूत करे , दशोंदिशा में फेलाए ,अनंत जिसका आकाश हो वह भुताकाश कहलाए।
106. निश्चय ज्ञानी जन करे , एक परब्रह्म स्वरूप,
वर्जित करे हर कल्पना से, उसका नित्यपूर्ण स्वरूप।
107. बालसहज अज्ञान से खेले दुखदायक खेल, चंचल मन अज्ञान से करे बिन सोच क्रीड़ा का खेल।
108. प्रमाद जब मन करे बड़े दुःख ही दुःख, मन को वश में जो करे नाश हो जाए सारे दुःख।
109. उठे ऊर्मि तरंग और कलोल जल में , पर हे सबकुछ जल रूप
उठे जो विचार, तरंग और उन्मांद मन में पर हे सबकुछ ब्रहम रूप
110. जेसे प्रचंड ताप सूर्य का, दिखे मृगमरीचिका समीप,
विचित्र रूप से दिखे परमात्मा पर है नाम रूप रहित।
112. स्वप्न में स्वप्न को देखता हूँ , तो दीखता है केवल स्वप्न,
खुली आँख से जगत को देखता हूँ , वो भी दीखता है केवल स्वप्न।
113. अनुभव स्वप्न का एक पल का, जैसे बिताया जीवन एक कल्प का,
सफर स्वप्न में कई जन्मो का, आभास मात्र हे पल दो पल का।
114. जल ही समुद्र का अंश कहालए, ऊष्णता ही अग्नि का अंश कहलाए,
वैसे ही चित्त आडम्बर रूपी संसार का अंश कहलाए।
115. मोह ,लालसा, अंहकार घृणा , हे मन का ही रूप, मन के यह विकार सारे मन ही मूढ़ता का स्वरूप।
116. वायु करे आकाश में अभ्रमंडल शुद्ध।
अभाव अहमता ममता का करे, चंचल मन को शुद्ध।
117. उष्णता बिन अग्नि नहीं,
चपलता बिना मन नहीं।
118. स्पन्दन है वायु की सत्ता,
चंचलता है चित्त की सत्ता।
119. चंचलता मन में बसी , तो वो मल रूप कहलाए,
स्थिरता अगर मन में बसी, तो वो मोक्षरूप कहलाए।
120. जो करे मन अनुसन्धान जड़ता का , तो जड़ता की वृद्धि हो जाए,
वृद्धि जड़तापन की मन में , बुद्धि विचलित कर जाए।
121. करे जो मन इच्छा सांसारिक पदार्थ की, वह दुखसागर को जाए,
करे जो मन अनिच्छा सांसारिक पदार्थ की, वह सुखसागर को पाए।
122. करे मोह जो पक्षी अन्न का, बंधन पाए पार्थी की जाल,
करे मोह जो मन पदार्थ का, बंधन पाए अविध्या की जाल।
123. अविध्या न जाने आत्मप्रकाश को, अविध्या न जाने देहादि रूप को,
चित्त न जाने अविध्या के रूप को,
अहो! फिर भी करे चित्त विश्वास अविध्या के स्वरुप को।
124. करे सूर्य का उदय अंधकार का नाश , करे विवेक का उदय अविद्या का नाश।
125. करे जो अभ्यास सदाचार से, उसे ज्ञानी चिंतन कहते हैं।
करे जो शास्त्र और सज्जन का समागम, उस चिंतन को वैराग्य कहते हैं ।
126. कर के चिंतन और शुभेच्छा , जो सूक्ष्मता की और जाए, उस ज्ञानी को इन्द्रियों के अर्थ में अनासक्ति हो
जाए।
127. करे जो अभ्यास शुभेच्छा, विचारना, तनुमानसा का, उसे चित्त में बाहरी विषय का वैराग्य हो जाए,
जो ज्ञानी वैराग्य से शुद्ध और सत्य निष्ट हो जाए वह ज्ञानी आत्मा में स्थित हो जाए वह ज्ञानी
सत्वपत्ति कहलाए।
128. जो सत्वपत्ति बाहर और भीतर के ज्ञान से परे हो जाए , वह चित्त असंग भाव से परमात्मा में लीन हो
जाए , जो ज्ञानी करे परमानंद भाव रूप का साक्षात्कार वह असन्नशक्ति कहलाए।
129. करे जो अभ्यास सत्वपत्ति और असन्नशक्ति का , वह पाए अभाव पदार्थ भावना का
130. जो करे अभ्यास शुभेच्छा विचारना और तनुमानसा का, जो करे अभ्यास सत्वपत्ति असन्नशक्ति और
पदार्थ भावना का वह समझे न भेद मात्र जगत को , उसकी सारी निष्ठा एक स्वभाव में आ जाए,
वह ज्ञानी तुर्या अवस्था को पा जाए।
131. जैसे बनती है कुल्हाड़ी पेड़ से और पेड़ कटता है कुल्हाड़ी से, वैसे उठता है विवेक मन से
और मन कटता है विवेक से।
132. न मिले कभी परमात्मा, थोड़े विषय त्याग से, पर मिले तभी अंतरात्मा जब मन सर्व त्याग दे।
133. त्यागे जो मन सर्व अनात्म वस्तुओं को, शेष रहे वही आत्मा कहलाए।
134. न भूले कभी वायु अपनी गति को , न भूले कभी तत्ववेता पुरुष निश्चित चैतन्य को।
135. है उपाय दो चित्त वृत्ति के नाश का, एक है योग दूजा ज्ञान कहलाए।
जो रोके चित्त की वृत्ति को वह योग कहलाए, और जो करे अवलोकन सूक्ष्म रूप से वह ज्ञान कहलाए।
136. जैसे न रहे मृग दावाग्नि की जगह पर , वैसे न रहे सद्गुण रुपी द्वेष चित्त की जगह पर।
137. जो करे अर्चन उपशम बोध समता के पुष्प से, वही आत्मरूप देवार्चन कहलाए।
जो करे केवल आकार का पूजन वह भ्रान्तिरूप देवार्चन कहलाए।
138. जो करे मन आत्मतत्व का गहरा अभ्यास, वह द्वैत वासना से मुक्त और शांत हो जाए।
जो स्वभाव प्राण का मन में एक हो जाए , तब वह प्राण शांत और निर्मल हो जाए।
139. है यह जगत उपेक्ष्य बोधवान की नज़र में,
है यह जगत उपादेय मूढ़ पुरुष की नज़र में,
है यह जगत हेय तीव्र वैराग्यवान की नज़र में।
140. होता है साक्षात्कार उसी शिष्य को , जो सुने गुरूपदेश मनन निधि ध्यान से
जब होती है बुद्धि स्वच्छ गुरूपदेश से तब पाता है शिष्य साध्य को गुरूकृपा से।
141. क्षय हो जाए मन जिस धीर पुरुष का, दिखे केवल परम तत्व उस धीर पुरुष को।
142. है जब तक इन्द्रियों की वृत्तियों में वासनारूपी विषय रस , तब तक रहे साथ ये संसार और जन्म मरण
आदि अनर्थो का रस।
143. महा धैर्यवान और जितेन्द्रीय ही सच्चा पुरुष कहलाए, जो चले मात्र प्राण आदि पवन से वह मास यन्त्र का
समूह केवल कहलाए।
144. जिसकी मिटी इच्छा विषय से उसने पाई निष्काम मुक्ति विषय से।
145. सहज स्वभाव है तत्व ज्ञान का स्वरूप, पाया जब खुद को तात्विक स्वरूप, तब शम गया आत्मा में
असत्य अहंकार का यह रूप।
146. जैसे वृक्ष छुपा हे बीज के अन्दर , वैसे साकार जगत छुपा हे आत्मा के अन्दर।
147. पूजन करे जो अपनी अन्तरात्मा का, शांति और सत्संग के उपहार से, तत्काल पाए वह मोक्ष रूप का ,
अपने ही तत्व ज्ञान से।
148. रखे विवेकी परिचय इतना शास्त्र और सत्संग से, करे उसी का अनुभव स्वप्न में अत्यंत ही अभिनिवेश से।
149. हे स्वप्न एक मानसिक विकार, बाहर भीतर करता हे जेसे विचार ,उसी संबंध से ले ता है पदार्थ आकार
150. करे जो भावना " मै " देहादि रूप, नाश हो जाए उसका बल बुद्धि तेज स्वरूप करे जो भावना "मै "
चिद्रपादी रूप , उदय हो जाये उसका बल बुद्धि तेजोमय स्वरूप।
151. है सर्वत्र समान परब्रह्म श्रृष्टि पुर्वकालसे ,है भरपूर अभी भी और रहेगा भरपूर अनंतकाल तक।
153.है तीन सुख और समृद्धि महात्मा और संतन की ,एकांत, निराभिमान और अकिंचन।
154.जो करे न सम्मान उत्तम शास्त्र के अर्थ का ,न करो मैत्री ऐसै अज्ञानी मत्सर और मोहरूपी पुरुष से।
155,जो करे मन को स्थिर अचल संकल्प से ,वह आत्मा में विषय सिद्ध हो जाए,
फिर सत्य हो या असत्य ,वह भी आत्मा में स्थित हो जाए।
156.जब दिखे जागृत बाह्य स्वप्न जगत को ,तब इन्द्रियाँ बहिर्मुख हो जाए।
157.जब तक लकड़ी न धरे आकार कमंडल का ,तबतक परिणाम रूपी जल न धरे आकार कमंडल का,
वैसे ही बोध अभ्यास से परम उत्कृष्ट परिणाम न पाए ,तब तक ज्ञान भी चित्त के अन्दर कैसे प्रवेश कर पाए।
158.समुद्र की तरंग से उछलते हुए जल का, पल में समागम और पल में वियोग हो जाए,वैसे ब्रह्म रूप महा सागर में स्फुर्ण रूप जीवों का पल में समागम और पल में वियोग हो जाए।
159.अल्प काल अवस्था स्वप्न रूप कहलाए, जो रहे दीर्घ काल अवस्था वो जागृत रूप कहलाए।
160.है स्वप्न सृष्टि मिथ्या तो भी अनुभव करे जगत का, है द्रश्य प्रपंच भी मिथ्या तो
भी आभास करे सत्य जगत का।
161.है धर्म, ब्रह्म की शक्ति की प्रतीति और उसका ही अभाव,
दोनों पाए स्थिति वैसी ही, जैसा उसका प्रभाव।
162.जैसे निंद्रा के हैं दो रूप- स्वप्न और सुषुप्ति, वैसे ही ब्रह्म के है दो रूप- दृष्टा और द्रश्य रूप।
163.होता अनुभव संकल्प का जब तक संकल्प नगर में है संकल्प कायम,
होता अनुभव जगत का जब तक, संकल्प जगत में है संकल्प कायम।
164.जब होता है क्षय सर्व वस्तुओं की तृष्णा का, तब मन में तत्व ज्ञान जग जाए,
जब तत्व ज्ञान करे बाधित दृश्य को, तब तृष्णा ही समाप्त हो जाए।
165.जो पाए संपत्ति ज्ञान वैराग्य की, वह मोक्ष रूप कहलाए,
फिर न कभी पाए शोक जीवन में, वह अनंत शांति पद स्थित हो जाए।
166.धारण करे यह जल, पात्रता के स्वरुप को, वैसे धारण करे चैतन्य जीव कर्म फल के स्वरुप को।
167. आकार पात्र का कैसा भी रहे फिर भी जल शुद्ध कहलाए।
वैसे प्रकार कर्म का कैसा भी रहे, फिर भी चैतन्य शुद्ध कहलाए।
168.जल ठहरा जो एक पात्रमे तो मलिनता से भर जाए,जल बहे जो धरातल पर तो सबको शुद्ध करजाए ।
मन ठहरे जो इन्द्रिय विषय में तो मोह वासना में बंध जाए ,मन बहे जो चैतन्य सागर में तो ब्रह्मलीन
बनजाए।
169.पात्र में जल भरने से पात्र जल न कहलाए, शरीर में चैतन्य रहने से भला कैसे चैतन्य शरीर कहलाए।
170.अलग-अलग पात्र में भरा जल बाहर से जल ही कहलाए, वैसे ही अलग-अलग शरीर में बसा वह चैतन्य बाहर से चैतन्य ही कहलाए।