Tuesday, 1 July 2014

साक्षी भाव

जीवन में कुछ ना कुछ बनने की दौड़ लगी रहती है ।कुछ बन जाने के बाद उसे खोने का डर रहता है । यह जीवन कुछ खोने और कुछ पाने के चक्कर में बीत जाता है । और अपना अहंकार ही कुछ पाने में ख़ुशी देता है और खोने में ग़म देता है ।आत्मा न कुछ खोता है न कुछ पाता है वह तो साक्षी भाव से सबकुछ देखता रहता है । जब हम याने मन रुपी अहंकार इस आत्मरुप के साथ एक हो जाता है तब मन की दौड़ भी शांत हो जाती है ।
जबतक मनरुपी जल में ऊद्वेग रुपी कंकर पड़ते रहेंगे तबतक अपना मन अशांत ही रहेगा । पर जैसे ही जल शांत होता है तब वह बाहर का प्रतीबींब दीखाता है और भीतर भी पारदर्शी रहता है ।

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