Thursday, 15 January 2015

sansar meri nazar se














जिसके भीतर  पूरे जगत का सार हैं उसका नाम है संसार ।संसार में हर जीव उसके विरोधाभासी स्वभाव के कारण चलायमान है । अगर संसार में विरोधाभास न होता तो सबकुछ स्थिर हो  जाता। जब यह विरोधाभास मूल्यों के बीच आकर्षण होता है तब वह सृजनात्मक  रुप लेता हैं। और जब उसमें अवरोध
 खड़ा होता है तब वह विनाश का  रूप धारण करता है। इस तरह विज्ञान के नियम के अनुसार आकर्षण और विकर्षण के बीच जीव आधारभूत है। यदि यह विरोधाभास मूल्यों के  बीच सन्तुलन बनाए रखतां तब जीवन में प्रगति होती है यही सन्तुलन जब टूटता है तब घर्षण पैदा होता है और जीवन में संघर्ष बढ़ जाता है । इसका अनुभव हम संबंधों के रूप में करते रहते हैं । यह सृष्टि जिन पांच तत्वों से बनी है वे भी एक दूसरे के विरोधाभासी एवम पूरक है । हम सब इन्हीं पंचतत्वो से बने हुए हैं, यही कारण है कि हम सभी में इन्हीं पंचतत्वों का स्वभाव विद्यमान है । पृथ्वी हमें स्थिरता और चुम्बकीय शक्ति प्रदान करती है । वायु हमारे भीतर चंचलता पैदा करती है। अग्नि हमारे अंदर ऊष्णता बढ़ाती है । जल हमारे भीतर ठंडक बनाए रखता है । ये सब हमारे भीतर के आकाश तत्व की वजह से संभव है । इन्ही पंचतत्वों का स्वभाव हमारे जीवन में पूरकता पैदा करता है,जिससे जीवन के हर कार्य को गतिशीलता मिलती हैं। पाँचों तत्वों के मिश्रण से प्राणतत्व बढ़ता है, यह प्राणत्तत्व त्रिगुणात्मक रूप में पुरे ब्रह्मांड में व्याप्त है ।जिसे हम सत्व रजस और तमस गुण के नाम से जानते हैं ।अपने मन को कार्यरत रखने के लिए रजस उर्जा की ज़रूरत पड़ती है ।मन को शांत और एकाग्र करने के लिए सत्वगुण की जरुरत होती है । और जब इसी प्राणत्तत्व अर्थात उर्जा की कमी हो जाती है तब तमस गुण हमपर हावी हो जाता है, जो मन को आलस्य क्रोध और नकारात्मकता की ओर ले जाता है । इस तरह जब प्राणत्तत्व का यह त्रिगुणात्मक  स्वभाव कम या ज़्यादा होता है तो उसका सीधा असर हमारे मन,व्यवहार और भावना पर होता है ।जैसे एक झुठ छिपाने के लिए सौ झुठ बोलने पड़ ते हैं उसी तरह असंतुलित मन से लिए हुए निर्णय को सही साबित करने के लिए मन ज़्यादा उलझता रहता है और अहंकार और स्मृति की बैसाखी के सहारे नएनए प्रपंच रचता रहता है ।
जैसे मकड़ी अपनी ही जीह्वा से तंतु नीकाल कर जाल बुनती है,और जीव-जंतुओको  अपने जाल में फँसाती रहती है और ख़ुद भी उसी जाल के मध्य में फँसीं रहती है ।उसी तरह मनुष्य भी अपने मन में प्रपंच रुपी तंतु बुनता है और फिर यह जाल पुरे संसार में फैलाता है, ख़ुद भी उस मायाजाल में फँसा रहता है ।
संतुलित मात्रा में बनीहुइ हरचीज अमृत के समान है ।जैसे भोजन में सही मात्रा में नमक व्यंजन को स्वादिष्ट बनाता है । पर ज़्यादा या कम नमक व्यंजन  के स्वाद को बीगा़ड़ देता है । उसी तरह सांसारिक जीवन में व्यक्ति का व्यवहार अगर ठीक न रहे और बह किसी एक वासना के सुख के पीछे भागता रहे तो वह सांसारिक जीवन को अस्त-व्यस्त कर देता है ।
हर व्यक्ति अपने पिछले जन्म के संस्कार,जन्म के साथ मिलीहुई परिस्थिति,मनमें ख़ुद की पसंद से उठे हुए विचारों के आधार पर आदर्श व्यक्ति की कल्पना करता है । ऐसे काल्पनिक व्यक्ति की खोज वह जीव भर करता रहता है ।फिर आशा और निराशा के भँवर में फँसकर प्रेम की नई-नई व्याख्या रचता रहता है ।वह अपना सर्वस्व यातो कीसी पर लुटा देता है ।या फिर किसी का सर्वस्व लुट लेता है । इस तरह वह अनेक वेदना ओर संवेदना के सहारे अपने  जीवन को धकेलता रहता है ।
संसार अर्थात एक व्यक्ति का दुसरे व्यक्ति के साथ मानसिक,शारीरिक और व्यावहारिक मूल्यों,वस्तुओं,भावनाओं और गुणों का आदान प्रदान ।जीसका आधार संबंधों की निकटता और दूरी पर निर्भर है ।
संबंधों का मूल आधार तो निःस्वार्थ भाव और प्रेम है ।किन्तु यह आधार मन ने अपनी इच्छापूर्ति के लिए और अपनी ईन्द्रियों की वासना की भूख को तृप्त करने के लिए स्वार्थ को सौंप दिया है । इस कारण मन हर संबंध में सामने वाले से कुछ पाने के भाव के साथ आदान-प्रदान का मूल्य तय करता है । इस तरह संबंधों का भी व्यावसायिकरण  करदिया है ।
हर संबंध का आधार प्रेम है । हर व्यक्ति का प्रेम जताने का तरीक़ा अलग-अलग होता है ।कई लोग अपना प्रेम दर्शाने हेतु भावनाओं का अतिरेक करते है ,तो कई लोग अपने ही मन में प्रेम के ताने-बाने बुनते रहते हैं और ख़ुद की कल्पना को सच मानकर सामने वाले से उसको समझ ने की अपेक्षा भी रखते हैं ।
ईन्हीं कारणों से लोग हमेशा कहते आए हैं "मुझे आजतक कोइ समझ नहीं पाया "
     जब व्यक्ति के नाम मात्र से मनमें तरंगें उठने लगे,सोईहुुई ऊर्मियां जगने लगे और शरीर में प्राण का संचार होने लगे तब समझना चाहिए कि आप उस व्यक्ति से प्रेम करने लगे हैं । प्रेम के संबंध का कोई नाम नहीं होता । एेसे संबंधों काे नाम देकर हम उसे सीमित कर देते हैं ।संबंधों के नाम के साथ अपेक्षा जुड़ती है,अधिकार जुड़ता है और लगाव के साथ स्वामित्व का भाव जुड़ता है । फिर हम उस व्यक्ति पर अधिकार जताने लगते है । जैसे ही संबंधों में अधिकार का भाव पैदा होता है वैसे ही संबंधों में प्रेम के स्थान पर घृणा पैदा हो जाती है ।
मेरे मतानुसार यदि हमें संबंधों को बनाए रखना है तो जिस तरह हर व्यक्ति का नाम  उसकी पहचान बताता है उसी तरह हम संबंधों के नाम को भी पहचान तक सीमित रखेंगें तो व्यक्ति के व्यक्तित्व की पहचान होंगी । यदि हम हर व्यक्ति के व्यक्तित्व की क़द्र करेंगे तो एक दूसरे के विकास में सहायक होंगे ।और एक-दूसरे को छोटा बड़ा दिखाने की स्पर्धा से मुक्त होंगे ।
जिस प्रकार सागर में विष और अमृत दोनों ही विद्यमान है पर उन्हे सागर मंथन द्वारा एक दूसरे से अलग कर सकते हैं । उसी प्रकार संसार रूपी सागर में गुण-दोष रूपी षट् विकार दोनों हीं समाए हुए है । पर ज्ञानरूपी मंथन से षट दोष को दूर करके हम अपने भीतर सदगुण बढ़ा सकते हैं । 
अगर हम संबंधों के बारे में बात करें तो पूज्य  गुरुदेव  ने पति और पत्नी के संबंधों की छोटी सी व्याख्या में सब कुछ कहदिया है ।पति और पत्नी के संबंधों को अच्छी तरह बनाए रखने के लिए गुरुजी कहते हैं कि हर पत्नी को अपने पति के अहंकार को संभालना चाहिए और हर पति को अपनी पत्नी की भावनाओं का ध्यान रखना चाहीए । 
पढ़ने-सुनने में यह बहुत सरल व्याख्या है,पर उसमें पतिऔर पत्नी के जीवन का पूरा सार छिपा हुआ है ।इसे समझ ने के लिए हम स्त्री और पुरुष के स्वाभाविक स्वभाव पर बात करेंगे । 
हर पुरुष अपनी ख़ुमारी दिखाने के लिए अहंकार का सहारा लेता हे ।और अपने पुरुषत्व को दुसरें से अधिक दिखाने की चेष्टा करता रहता है । फिर ऐसे दिखावे के लिए वह किसी भी सीमा को पार कर जाता है ।पत्नी अपने पति के अहंकार को अधिकतर ठेस पहुँचाती रहती है और उसके अहंकार रुपी आग में घी डालने का काम करती रहती है । जिसकी वजह से पति और पत्नी के बीच अंतर बढ़ता जाता है ।
स्त्री का गहना लज्जा है और उसे अपनी सुंदरता दर्शाना पसंद है ।स्त्री का गहना लज्जा है । वह भावुक स्वभाव की होती है । उसे अपनी सुंदरता दर्शाना पसंद है और अपने सौंदर्य की प्रशंसा सुनना अच्छा लगता है । वह जल्दीही दुसरों की बातों में आकर भावना के भँवर में फँस जाती है । और दूसरों को इस भावना के भँवर में फँसा भी सकती है । स्त्री अपने माता-पिता के साथ भावुकता से जुड़ी  रहती है । अगर कोइ पति अपनी पत्नी के माता-पिता के विषय में कुछ भी बुरा-भला कहता है तब दोनों के बीच युद्ध की स्थिती उत्पन्न हो जाती है ।इसलिए गुरुजी कहते हैं कि अगर पति अपनी पत्नी की भावनाओं का ध्यान रखेगा तो उसका जीवन सुखमय बन जाएगा । 
जिन संबंधों में संबंध के प्रति अधिकार का भाव जुड़ता है वहाँ उसके साथ विकार भी जुड़ जाता है । जैसे कि माता और पुत्र के संबंध में मोह, पति और पत्नी के बीच अहंकार, भाई और बहन के बीच ईर्षा पीता और पुत्र के बीच लालच । अगर संबंधों में हम अधिकार और स्वामित्व का भाव रखते हुए एक दूसरे पर हक़ जताएँगे तो मन षट विकार में जरुर फँसेगा ।यदि हम संबंधों के नाम का उपयोग केवल पहचान तक सीमित रखेंगे तो हमारा हर व्यक्ति के साथ प्रेमभाव बना रहेगा । वसुधैवकुटुंबुकम के भाव के साथ सबको साथ लेकर हम आगे बढ़ सकेंगे ।
हर व्यक्ति की पहचान उसके व्यक्तित्व से होती है । उसका व्यक्तित्व समाज के लोगों के साथ किए गए व्यवहार से बनता है । अगर व्यवहार अच्छा तो व्यक्तित्व अच्छा,व्यवहार बुरा तो व्यक्तित्व बुरा । यहाँ पर स्वार्थ नाम का विकार अपना बहुत अच्छा किरदार निभाता है । चाणक्य ने बड़ी अच्छी बात कही है कि सत्य की रक्षा का युद्ध कहीं स्वार्थ की रक्षा का युद्ध न हो जाए । कईबार हम सत्य की आड़ में अपने स्वार्थ की सीमा बढ़ाते रहते है ।
इस विषय में एक कहावत है । ज़रुरत  पड़ने पर गधे को भी बाप बनाना  पड़ता है  ।सामने वाले व्यक्ति का व्यक्तित्व भले ही गधेजैसा हो पर उसको अपने बाप की तरह सम्मान देना पड़ता है । क्योंकि अभी उस व्यक्ति के साथ हमारा स्वार्थ जुड़ा हुआ है ।और हमें उससे अपना काम करवाना है ।
समाज में संबंधों का आधार व्यक्ति के प्रति बनी हुई पूर्वधारणा के कारण देखने को मीलता है ।हर व्यक्ति दुसरे व्यक्ति के लिए उस व्यक्ति के साथ के भूतकाल के अनुभवों के कारण,फिर दूसरों से और समाज के किसी  समुदाय से उस व्यक्ति के बारे में सुनकर अपने मन में पूर्वग्रह बनाते हैं ।फिर ऐसी पूर्वधारणाओं का  सहारा लेते हुए संबंधों की नींव रखते है । जब ऐसी काल्पनिक पूर्वधारणा टूटती हैं ।तब संबंधों में दरार पैदा हो जाती है और मन एेसे व्यक्ति से पुनः कभी भी नहीं मिलने का निश्चय कर लेता है ।
मन ऐसे ही वीचारों और पूर्वधारणाओं में फँसता रहता है ।वह वर्तमान स्थिति में न रहकर शंका और कुशंकाओं के जाल में उलझकर मजबूर होकर जीने के लिए प्रपंच रचता रहता है ।और ख़ुद के ही अस्तित्व और व्यक्तित्व से दूर हो जाता है ।
जिस प्रकार चाय को मधुर और स्वादिष्ट बनाने के लिए सम मात्रा में दुध और पानी उबाल कर उसमें निश्चित मात्रा में चाय,चीनी और अदरक डालकर बनाएँगे, पर छन्नी से उसे छानेंगे नहीं तो चाय मधुर होने के उपरांत भी पीने योग्य नहीं होगी ।उसी प्रकार हमें संबंधों मेंमधुरता और प्रेम बढ़ाना हो लेकिन उसे समझदारी और वास्तविकता की छन्नी से छानेंगे नहीं तो संबंधों में कटुता और असुरक्षितता का भाव उत्पन्न होगा ।
मेरे मतानुसार हर संबंध का नाम उसकी मर्यादा और उस के प्रति आदर के भाव को जगाता है । जब भी हमारा मन भावनाओं में बहने लगे या विकारों में फँसने लगे तब ऐसी परिस्थिति में यही नाम अपनी मर्यादा दिखाता है और हमें ग़लत काम करने से रोकता है ।दोनों व्यक्ति उस वक्त एक दूसरे के प्रति आदर भाव बनाए रखते हैं । जब हमारी ईन्द्रियों में वासना की भूख जगती है तब मन ऐसी मर्यादाओं का उल्लंघन करने के लिए तैयार हो जाता है । और उसे पाने की हवस मन में जग जाती है ।
अगर बाल्यावस्था में ही व्यक्ति मन में संस्कार रूपी बीज का सही सिंचन कीया जाए तो बड़ा होकर वह व्यक्ति विकट परिस्थिति में भी अडिग रहेंगा और अपनी भावनाओं और वासनाओ के प्रवाह को मन में ही रोककर उसपर विजय प्राप्त करेगा ।
संस्कार से संबंधों में विश्वास जगता है । विश्वास से संबंधों में प्रेम भाव बढ़ता है । यही भावना व्यक्ति को अति निकट ले जाती है । परंतु जब निकटता में संयम नहीं रहता है तो वासना के प्रवाह का बंध टुट जाता है । फिर यही संबंध विक्रृत संबंध बनकर रह जाता है ।एेसे संबंधों को समाज से छुपाने के लिए व्यक्ति झुठ और क्रोध का सहारा लेता है ।और संसार के मायाजाल में ज़्यादा ही उलझता जाता है ।
समाज यानि कोई एक प्रकार की मानसिक ग्रंथि से पीडित लोगों का समुह । जो निर्बल व्यक्ति को ज़्यादा निर्बल बनाता है,और सामान्य व्यक्ति की प्रशंसा  करके उसके उत्साह के साथ उसके अहंकार को बढ़ाने का कार्य करता है ।
अगर समाज को दिशा निर्देशित करने के लिए अच्छे व्यक्तित्व वाला नेता मिलता है तो यही समाज बहुत अच्छे कार्य करता है ।पर दिशा निर्देश ग़लत व्यक्तित्व वाले के हाथ में जाता है तो वह पूरे समाज को अधोगति की ओर ले जाता है ।
संबंध यानि दूसरी व्यक्ति के लिए अंतरमन की भावना ।मुझे अपनी आशीर्वाद यात्रा के दौरान का एक अनुभव याद आ रहा है । मैं जब मध्यप्रदेश के एक गाँव में आशीर्वाद देने हेतु गयाहुआ था तब वहाँ एक संयुक्त परिवार वाले घर में हमारे भोजन की व्यवस्था की गई थी । उस परिवार में लगभग २५ से ३० सदस्य थे । भोजन के पश्यात घर का हर सदस्य आशीर्वाद लेने हेतु मुझ से अकेले मिलने आया । पहले घर की स्त्रियाँ आई मैंने ग़ौर किया कि हर स्त्री ने आशीर्वाद अपने माँ पिता,पति,भाइ,देवर और पुत्र -पुत्री के लिए माँगा,ज़बकि घर के पुरुष वर्ग ने ख़ुद के लिए और ख़ुद के स्वास्थ्य के लिए आशीर्वाद माँगा ।घर के बच्चों से फीर पता चला कि यही पुरुष वर्ग अपने क्रोध और अहंकार के कारण घर की स्त्रीयों पर अत्याचार भी करता था ।यह स्त्री का संस्कार ही है जो अत्याचार को सहते हुए सहनशीलता को धैर्यता पूर्वक बनाए रखती है । शायद  इसी वजह से धैर्य सीखाने 
वाली माँ को प्रथम गुरु कहा गया है ।
स्त्री का सहज स्वभाव सहनशिलता,त्याग,धैर्य और प्रेम है ।परंतु विक्रृत भाव मोह,लालच,स्वार्थ और ईर्ष्या जब उस पर हावी हो जाता है तब शांत मन से भी वह बड़े प्रपंच रचने की क्षमता रखती है ।
पुरुष का स्वभाव अपना आत्म सम्मान संभालना,ख़ुमारी के साथ जीना और भोलेपन में रहना है । मज़े की बात यह है कि पुरुष के आगरूपी स्वाभिमान को अगर कोई स्त्री थोड़ी सी हवा दे तो तुरंत ही उस पुरुष का स्वाभिमान अभिमान में बदल जाता है,और क्रोध का स्वरूप ले लेता है ।पुरुष में धैर्य की कमी होती है जिसके कारण वह क्रोध और अहंकार में फँसता रहता है ।दूसरो के मन को ठेस पहुँचाते हुए संबंधों में दरार बढ़ाता जाता है ।
जैसे चने के छिलके में बिना चने के भी कड़ापन बना रहता है ।चने के छिलके कि तरह कई पुरुष के अंदर बिना ताक़त भी अकड़ बनी रहती है ।स्त्री को अपनी सुंदरता का अभिमान होता है ।अगर किसी पुरुष ने उसकी ओर नहीं देखा या तारीफ़ नहीं की,तो भी स्त्री नाराज़ हो जाती है, और किसी ने तारीफ़ करदी तो भी परेशान होते हुए शंका करने लगती है ।
जिस तरह एक मोर मोरनी को आकर्षित करने के लिए विभिन्न कलाएँ करते रहता है वैसे ही पुरुष भी स्त्री के सामने आते ही उसको अपनी ओर आकर्षित करने के लिए अनेक नौटंकी करता रहता है ।उसी तरह स्त्री भी अपनी पसंद के व्यक्ति को आकर्षित करने हेतु अनेक हथकंडे अपनाती है ।स्त्री अधिकतर चातुर्य और भावना से पुरुष को वश में करने की कोशिश किया करती है । स्त्री में भाव के अनुरूप अपनी आवाज़ बदलने की अदभुत क्षमता होती है जिसके द्वारा वह क्रोधित और नाराज़ पुरुष को भी अपने वश में ला सकती है ।पुरुष अपनी ताक़त से स्त्री को अपने वश में करने की कोशिश करता रहता है ।
एक बड़ा पेड़ प्रकृति की हर मुश्किल परिस्थितियों का सामना करते हुए अपनी मज़बूती के बल पर खड़ा रहता है । पर अमरबेल जैसी पतली-सी बेल उस पर गिरने पर वह पेड़ धीरे-धीरे ख़त्म हो जाता है ।
संसार के मायाजाल में अभिमान रुपी तंतु से बँधे हुए व्यक्ति को अगर मुक्त होना है तो एक दूसरे को वश में लेने की दौड़ में से निकलकर श्रद्धा और विश्वास के द्वारा आंतरिक सबंधो को मज़बूत करना जरुरी है ।कुछ देकर कुछ लेने की अपेक्षा से बने हुए संबंध मर्यादित है । परंतु एकबार किसी से मिलने के बाद बारंवार मिलने का भाव जब मन में जगे तो वह ह्रदय के संबंध होते है जिसमें स्वार्थ और वासना नहीं होती है ।
अनुभव करना मन का स्वभाव है और अनुभूति होना वह ह्रदय का स्वभाव है ।अनुभव के साथ व्यवहार जुड़ा हुआ है,अनुभूति के साथ अहसास जुड़ा हुआ है ।इसलिए प्रेम अनुभव से नहीं बढ़ता है प्रेम की अनुभूति तो ह्रदय में आनंद की उर्मियों को जगाती है ।अनुभव व्यावहारिक लेन-देन से होता है,पर अनुभूति व्यक्ति की उपस्थिति से ही होती है ।कई बार स्त्री को व्यक्ति की उपस्थिति से पता चल जाता है कि वह उस व्यक्ति के साथ सुरक्षित है या असुरक्षित ।स्त्री को भावुक होने के कारण यह गुण भी सहजता से मिला हुआ है । अगर हमलोग थोड़ी सजगता से देखें तो हर व्यक्ति की उपस्थिति उसका अलग-अलग स्वभाव व्यक्त करती है । अगर हम अपनेआप से जुड़े रहेंगे तो इस अनुभूति का आनंद उठा सकेंगे । अगर हम मन की तरंगों में और प्रपंचों में फँसे तो हमें ख़ुद की उपस्थिति का भी भान नहीं रहेगा ।
यही कारण है कि जीवन में वर्तमान क्षण में रहना जरुरी है। परिस्थिति और मुश्किलें टाल ने से दूर नहीं होती,पर वर्तमान स्थिति में रहकर उसका सामना करने से उसपर विजय ज़रुर प्राप्त कर सकते है ।
एक ही पेड़ पर लगे हुए फल का आकार और स्वाद अलग अलग होता है ।उसी तरह एक ही परिवार में रहते हुए लोगों का स्वभाव और व्यक्तित्व भी अलग -अलग होता है । फल परिपक्व होते ही पेड़ को छोड़ देते हैं, ठीक वैसे ही कर्म भी परिपक्व होते ही व्यक्ति को छोड़ देते हैं ।पेड़ पर फलों का लगने का क्रम निरन्तर चलता रहता है,ठीक वैसे ही व्यक्ति के मन में उठे हुए संकल्प के साथ कर्म के जुड़ने का क्रम भी जारी रहता है । जैसे फल में से बीज निकलते है और इसी बीज में से बड़ा पेड़ बनता है,वैसे ही हमारे संकल्प मात्र से हमारी ईन्द्रियाँ नए कर्म के साथ जुड़ती है और इन्हीं ईन्द्रियों में फँसा मन एक कर्म करते-करते अनेक संकल्पों के साथ जुड़ता जाता है ।इस तरह संकल्प,कर्म और कार्य का चक्र निरंतर चलता रहता है ।हमारे संबंधों की श्रृंखला भी कर्मों की श्रृंखला बनकर कई जन्मों तक अलग-अलग रुप और रंग लेकर जुड़ती रहती है । हर कर्म की समय मर्यादा उसके संकल्प के वक़्त उसको पाने के लिए मन में उठी हुई तीव्रता के आधार पर निर्भर रहती है ।
विविधता यह समष्टि का स्वभाव है ।इसी वजह से प्रक्रृति की गोद में अनेक प्रकार के जीव अपनी विशिष्ट लाक्षणिकता और गुण लेकर धरातल पर अपना अस्तित्व टिकाए हुए हैं ।ऐसी विविधता से भरी हुई लाक्षणिकता और गुणों से समग्र संसार में अपनी सुवास फैलाते रहते हैं । इसी विविधता और सुंदरता को प्राप्त करने के लिए मन आकर्षित होता है । गुरुजी कहते है मनुष्य के अलावा हर जीव केवल प्रारब्ध से प्रक्रुति के साथ जुड़े हुए हैं क्योंकि उनके पास मनुष्य की तरह स्वतंत्र मन नहीं है ।मनुष्य को प्रारब्ध के साथ पुरुषार्थ भी करना पड़ता है ।हर मनुष्य अपनी बुद्धि और क्षमता के आधार पर पुरुषार्थ करके अपने जीवन में ज़्यादा से ज़्यादा सुविधाओं को बढ़ाने की दौड़ में लगा हुआ है । परंतु स्वतंत्र मन के कारण कईबार पुरुषार्थ के नाम पर प्रक्रुति के विरुद्ध कार्य भी कर बैठता है । ऐसे किए गए कार्य से भी संसार अधोगति की ओर जाता है ।
संसार में हम सब एक जीव के रुप में अल-अलग योनि से गुज़रते हुए आए हैं ।हर योनिमें हमलोग तीन सुख भोगते आए हैं ।नींद,भुख और शारीरिक काम वासना ये तीनों सुखों को भोगने के संस्कार हमारी चेतना में स्मृति के रूप में गहराई में पड़े हुए है ।जब हम मनुष्य योनि में आते हैं तब बाल्यावस्था में हम नींद और भूख का अनुभव कर लेते हैं ।पर शारीरिक काम वासना हमारे भीतर युवावस्था में ही जाग्रृत होती है ।उस सुख का अनुभव हमें जन्मों से होने के कारण और युवावस्था में उसके प्रति अज्ञान के कारण उसके वेग को हम समझ नहीं पाते हैं ।युवावस्था में आते ही हमारे भीतर स्त्री को पुरुष की तरफ़ और पुरुष को स्त्री की तरफ़ देखने का नज़रीया बदल जाता है ।एक कहावत हम सुनते आए हैं कि " जब बेटी बड़ी हो जाती है तो आस-पास के लोगों को पहले पता चल जाता है "
इस कहावत में समाज के अच्छे चेहरे के पीछे के विक्रृत नज़रिये को दर्शाया गया है । पर मुझे इसमें समाज की अर्द्धनग्नता दिखाई देती है ।समाज में अच्छे व्यक्तित्व का मुखौटा पहने हुए लोग अपने संबंधों की आड़ में अपना अधिकार जताते हुए युवावस्था में क़दम रखते हुए लोगों पर बल से या छल से अपनी काम वासना का शिकार बनाते हैं ।उससे पीड़ित व्यक्ति इस तरह के शोषण को या बलात्कार को न तो किसीको बता पाते है और न ही उसे छुपा पाते हैं । उस पीड़ित व्यक्ति के स्म्रृति पटल पर गहरी चोट लगती है ।पर समाज में अपनी बदनामी के डर से एेसी वेदनाओं को अपने में ही समेट कर रखते हैं ।और अन्जाने में ही समाज के ऐसे विक्रृत लोगों का बचाव करते रहते हैं ।संसार में ऐसे विक्रृत मन वाले लोग मनुष्य रुप में पशु समाज को कलंकित करते आए है । और समाज भी झुठे आडंबरों को बचाने के लिए उसे अपने पहलु में छुपाता आया है ।
एक पतंगे का आकर्षण प्रकाश है और पुरुष का आकर्षण स्त्री है । प्रकाश अपने तेज़ से पतंगे को आकर्षित करता है और स्त्री अपने सौंदर्य से पुरुष को आकर्षित करती है । जब हमारे भीतर ऊर्जा  की कमी होती है तब यह मन बाहरी सुख की ओर भागता है और वासनाएँ हम पर हावी होने लगती है ।उसपर नियंत्रण पाने के लिए मन कइ बार नशे का सहारा लेता है ।पर नशा करने से वह और वासना के दलदल में फँसता जाता है ।कइ बार स्त्री को भी जब संतुष्टि का अभाव रहता है तब वह भी ऐसे सुख को भोगने हेतु संबंधों की रेखा लाँघ जाती है ।
संस्क्रृति,संस्कार,रीति रिवाज,मर्यादा ये सारे शब्द भारत की व्यावहारिकता को दर्शाता है ।नए संबंधों की नींव संकल्प और वचन बद्धता से की जाती है ।वेदों में ज्योतिष शास्त्र में कहा गया है कि शास्त्रानुसार संबंध जोड़ने से संतति अच्छी पैदा होती है । अगर ग्रह,नक्षत्र और श्वास के स्वर यानि नाड़ी का ध्यान रखते हुए संतति के लिए आयोजन करेंगे तो अवश्य बुध्धी जीवी संतति पैदा होगी ।जो संसार को उन्नति की ओर ले जाने में मददगार होगी ।आजकल घर में कुत्तों को भी अच्छी नस्ल देखकर लाया जाता है, तो फिर संतति के लिए ऐसी गड़बड़ क्यों ?
हमारे ऋषि-मुनियो ने हर विकार को दूर करने के लिए सोलह संस्कार की रचना की है ।जो गर्भ संस्कार से प्रारंभ कर के व्यक्ति की म्रृत्यु के पश्यात भी उस जीव को मुक्ति मिल सके उसके लिए संस्कार बनाए है । जिससे जीवन की हर अवस्था में विकारों से बचते रहें । हर संस्कार हमारी शारीरिक एवम् मानसिक उन्नति के लिए, उसकी वैज्ञानिकता को ध्यान में रखते हुए बनाए गए हैं ।आज के युग में हम हर कार्य में तर्क करते हुए उसमें वैज्ञानिक पहलु को ढूँढने की कोशिश करते रहते है ।जीन वेदों से विज्ञान का जन्म हुआ उसी विज्ञान से उनको ग़लत साबित करने का निरर्थक प्रयास किया जा रहा है ।धन कमाने के लिए बुद्धि की आवश्यकता होती है,पर सामाजिक व्यवहार में बुद्धि के साथ भाव की भी आवश्यकता होती है ।इसीलिए हमारे ऋषि-मुनीयों ने सोलह संस्कारों के साथ श्रद्धा  का भाव भी जोडदीया,जिससे भाव के साथ कार्य करने से वह स्म्रृति में संस्कार का रुप ले लेता है । जो हमारी स्म्रुती में रहकर जीवनभर हमें अपने आदर्षो पर चलने के लिए सहायक होता है, उसे संस्कार कहते हैं ।
सांसारिक जीवन में योग का बहुत बड़ा महत्व है ।योग का मतलब ही होता है जोड़ना । योग करने से सांसारिक जीवन में योग्यता आती है । पर योग को बहुत ग़लत ढंग से समझा गया है ।संसार को छोड़ देना योग नहीं होता । दाढ़ी-बाल बढ़ाकर कहीं बैठ जाने को योग नहीं कहते, बैरागी बनकर यहाँ-वहाँ घूमने को भी योग नहीं कहते ।जिससे हमारे व्यवहार और कार्य में कुशलता आती है उसे योग कहते हैं ।योग द्वारा हमारे मन में स्थिरता आती है ।योग द्वारा हमें शारीरिक एवम् मानसिक स्तर पर स्फुर्ति मिलती है और शरीर में प्राणत्तत्त्व बढ़ता है ।पातंजली जी ने योग के अंग बताए है जिन्हें अष्टाँगयोग कहते हैं ।
सांसारिक जीवन में हम एक दूसरे की बातों पर, दूसरे व्यक्ति के साथ के भूतकाल के अनुभव के आधार पर और हमारे उस व्यक्ति के साथ संबंधों की निकटता के आधार पर हम विश्वास रखते हैं । हमारी ग़ैर मोजूदगींे मे या हमारे कहने पर व्यक्ति भविष्य में बताया हुआ कार्य करेगा ऐसा जब हम द्रृढ़ता से मानते है तब उसे हम विश्वास कहते हैं ।पूरा संसार एक दूसरे के विश्वास पर ही चलता है । इन्सान का सबसे पहला विश्वास है प्रक्रृति पर,क्योंकि पाँचो़ंतत्व अपने समय से कार्य करते हैं तभी संसार में संतुलन बना रहता है ।इसी विश्वास में जब भरोसा जुड़ जाता है तब यही विश्वास श्रद्धा बन जाता है ।जैसे प्रक्रृति बिना स्वार्थ ही हमपर सबकुछ न्यौछावर कर देती है उसी तरह जिस व्यक्ति के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है उसपर अपना सबकुछ न्यौछावर करने को समर्पण कहते हैं ।यही वजह है कि श्रद्धा  को कइबार अंधश्रद्धा भी कहते है ।अगर हम अपने जीवन में झाँखकर देखें तो पता चलेगा कि ज़्यादातर भौतिक सुखों की चीज़ें हम एक दूसरे कि देखा-देखी में लेते रहते है ।अपनी  जरुरीआत के हिसाब से कम लेते है ।हम उस भेड़ की तरह हैं जो एक गिरता है तो पीछे-पीछे सभी गिरते हैं ।जीवन में विश्वास करने से ही आगे बढ़ सकेंगे परंतु जिस पर विश्वास करो उसको अपनी बुद्धि से परख कर भी चलना चाहिए । तभी गुरुजी कहते हैं कि कुछ मानके चलो,कुछ जानके चलो प्रेम से सबको गले लगाकर चलो ।
जब हमारा मन किसी  एक जगह पर टिकता हैं उसी को श्रध्धा कहते हैं ।वेदों ने और शास्त्रों ने अपने भीतर की ही शक्तियों का प्रतीकात्मक रूप में मूर्ति स्वरुप बनाकर उसमें प्राण प्रतिष्ठा करके श्रध्धा का स्थान बनाया ।जहाँ श्रध्धा टिकती है उस स्थान को मंदिर,मस्झिद या गिरजाघर कहते हैं ।जहाँ पर अपने अहंकार को छोड़कर नतमस्तक होते हैं उसे मंदिर कहते हैं ।पूर्णरूप से समर्पित होकर करने वाले कार्य को पूजा कहते हैं ।जब मंदिर में स्थापित मूर्ति को या शिवलिंग को पुष्प,जल या दुध चढ़ाते है तब मंत्रों के द्वारा भीतर के भाव को प्रकट करते हुए अंतर मन से प्रार्थना करते हैं की हे प्रभु ! तुम मुझ में जल की तरह शुद्धता और निर्मलता,पुष्प की तरह सुवास और कोमलता एवं दूध जैसी स्निग्धता एवं गुणों को मेरे अंदर जगाओ, जिससे सदगुण मेरे अंदर बने रहें और दुर्गुण और विकारों से मुझे मुक्ति मिले ।
शब्द ब्रह्म है,शब्द नाद है । वायु की कंपन से शब्द उठते हैं और उसके नाद से जल में तरंगें बनती है । जिसके उच्चारण से चारों और ऊर्जा का संचार होता है उसे मंत्र कहते हैं ।शब्दों से बना यह मंत्र जब लयबद्धता से गाया जाता है तब बाहरी वातावरण में और शरीर के भीतर यही तरंगें ऊर्जा का स्वरूप ले लेती हैं ।मन और वातावरण में शुचिता फैल जाती है ।
इस तरह पूजा-अर्चना करते हुए हम अपने भीतर की शक्तियों को जगाते है ।द्वैत से अद्वैत की और,अाकार से निराकार, दृश्य से अदृश्य की और जाकर वहाँ ध्यान द्वारा खुद को केन्द्रित करने की प्रक्रिया को ही पूजा कहते हैं ।यानि जो हमारे सामने मूर्ति  स्वरूप है उस द्वेत स्वरूप  में समर्पित होकर ख़ुद के भीतर की अद्वैत की शक्तियों में स्थिर होना ही अाध्यात्म है । अाध्यात्मिक यानि जो अपने आत्मभाव में साक्षी स्वरूप रहता है वह आध्यात्मिक कहलाता है ।जो मार्ग दिखाता है उसे मार्गदर्शक कहते हैं ।निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचा हुआ व्यक्ति ही मार्गदर्शक बन सकता है ।जिसने आत्मसाक्षातकार किया हो वही आध्यात्मिकता का मार्गदर्शक कहलाता है ।जो ख़ुद मार्ग से भटका हुआ है वह मार्गदर्शक यानि सदगुरु नहीं बन सकता । जो अंधकार से प्रकाश की ओर,असत्य से सत्य की ओर ले जाता है वही है सदगुरु  । यह लिखते हुए मुझे गुरुजी का एक वाक्य याद अा रहा है ।गुरुजी कहते है जहाँ दुख है वहाँ ज्ञान नहीं रहता और जहाँ पर ज्ञान है वहाँ दुख नहीं रह पाता ।ज्ञान की चिंगारी मात्र से जो हमें दुख से बाहर निकालता है वही है सदगुरु ।
उपनिषद कहता है धार्य ते ईती धर्म:- जिसने सत्य के मर्म को धारण किया है उसे धर्म कहते हैं । जो किसी आदर्श पर नहीं टीक पाते वे हर आकर्षण पर गिरते हैं ।केवल धर्म ही है जो हमें धारण करता है,और सत्य के मार्गपर टीकाए रखता है ।व्यक्ति के भीतर के व्यक्तित्व को जगाकर उसे सत्य के मार्ग पर लाने को धर्म कहते हैं ।धर्म परिवर्तन हो ही नहीं सकता क्योंकि वह तो सनातन है आवश्यकता है व्यक्ति में परिवर्तन लाने की ।
एक मकान को खड़ा करने के लीए ज़मीन की आवश्यकता होती है ।उसी तरह किसी भी संप्रदाय को टिक ने के लिए धर्म की आवश्यकता होती है ।जिसकी धरा पर धर्म टिकता है उसे सनातन कहते हैं । जो सदियों से चला आया है और सदियों  तक रहेगा ।
भगवान का मतलब ही होता है भूमि,गगन,वायु,अग्नि और आकाश ।यानि जो कण-ाकण में व्याप्त है वो भगवान ।सर्वम खलविदंं्म् ब्रह्म । जब अलग अलग विचारकों ने ख़ुद के आत्मसाक्षातकार के आधार पर इस ब्रह्म ज्ञान को समझकर लोगों को समझाया तब विभिन्न संप्रदायों की रचना हुई ।जब मन पूर्णत: आत्मा के साथ जुड़जाता है अर्थात मन और आत्मा के बीच से अहंकार का पर्दा हट जाता है तब शायद मन को आत्मा का साक्षात्कार होता होगा ।
नदी को भी एक निश्चित दिशा में बहने के लिए किनारो की ज़रूरत पड़ती है ।ठीक उसी तरह संप्रदाय में भी दिशा निर्देश और संचालन के लिए नियमों की आवश्यकता रहती है ।केवल क़ानून  की किताब पढ़ने से या साथ रखने से कोई जज या वकील नहीं बन सकता ।वैसे ही विविध संप्रदायों के धर्म ग्रंथों की अदला-बदली से जन्म के साथ मिले संस्कारों को छोड़ना या तोड़ना संभव नहीं है ।
गुरुजी  कहते हैं कि केले के गर को उसका छिलका भीतर थाम के रखता है, वैसे ही अपने अंदर की आध्यात्मिकता को धर्म ने थाम के रखा है । पर लोग संप्रदाय रुपी धर्म को पकड़ के रखते हैं और आध्यात्मिकता को छोड देते है ।
संत की पहचान

संत और समाज एक दूसरे के पर्याय है। संत का जन्म समाज में से ही होता है। और यही समाज के हित की रक्षा का दायित्व संत पर होता है ।संत का धर्म लोगों के चरित्र की रक्षा करने का है और भटके हुए को मार्ग पर लाने का है।जब समाज में और लोगों के मन में विकृति बढ़ती है तो उस पर अंकुश लगाने का कार्य भी संत का है।मन में उठे हुए विचार और भावना के स्वार्थ से दूसरों को दुख न पहोचे एेसे संस्कार देने का कार्य भी संत का है।  यदि इस तरह का आचरण आप करते हैं तो आप भी संत ही हैं ।   यदि हम डर से भयभीत हो कर या चमत्कार से संत की शरण में जाते हैं और श्रद्धा रखते हैं तो यह हमारी बहुत बड़ी भूल है। इस तरह की श्रद्धा को अंधश्रद्धा कहते है ।   श्रद्धा यानि गुरु के वचनों का पालन करना और उनके आचरण का अनुसरण करना ।श्रद्धा तो अंधी ही होती है, पर अपने शिष्य की श्रद्धा  पर अटूट विश्वास बनाकर रखने का कार्य गुरुजन का है । गुरुजन की कथनी और करनी में अंतर अा जाता है तो यही श्रद्धा अंधश्रद्धा बन जाती है ।और एेसे गुरुजन अपने ही शिष्य की श्रद्धा के साथ विश्वासधात करते हैं ।। किसी भी प्रकार के भय,डर और चमत्कार के बगैर हमारे भीतर प्रेम के द्वारा जो आत्म विश्वास और श्रद्धा बढ़ाते हैं उन्हें सदगुरु कहते है। जहाँ श्रध्धा की कमी होति है वहाँ असुरक्षा का भाव जग जाता है ।और अनेक प्रकार की शंका,कुशंका मन में जग जाती है ।यही शंका कुशंका  मघुर संबंधों में कटुता पैदा करती है। इसी वजह से कइ बार संबंध टूट भी जाते हैं ।                           शंका,कुशंका और असुरक्षा की भावना हमें लोभ,लालच,मोह,क्रोध,अहंकार और असत्य के भँवर की ओर ले जाती है ।हमारा मन अपनी ही शंका को सत्य साबित करने के लिए असत्य का सहारा लेता है। और उसने जो कहा वही सत्य है उसका प्रमाण खुद को दे देता है । इस तरह मन खुद के बनाए हुए भँवर में फँस जाता है ।।                                                      मन अपनी पाँच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से खुद के वासनारूपी अंतर सुख को प्रत्यक्ष भोगने हेतु अपनी ही पाँच कर्मेन्द्रियाँेेको आदेश देता है। तब यह मन अपनी सारी शक्तियों  को एकत्रित करके छल या बल के माध्यम से क्षणिक सुख को प्राप्त करता है ।                                             संत वो है जो अपनी पाँच ज्ञानेन्द्रियों को कछुए की भाँति अपने अंकुश में रखता है और दूसरों को अंकुश में रखना सिखाता है । जब भी हमारा मन उलझनों में फँसता है या जीवन से दुखी हो जाता है तब वह कृपा का, श्रद्धा का सहारा ढँूढता है । हमारी मजबूरी का फ़ायदा उठाकर डराकर या चमत्कार दिखाकर ऐसे ठग,संत के वेश में  हम पर हावी हो जाते हैं ।और हमसे पैसों की या अपने शारीरिक  सुख की हवस को भोगते हैं । उलझन और दुख दूर करने की लालसा में हम भी खुद को लुटाते रहते है ।।             जिनके सान्निध्य  से या मात्र चिंतन से मन में शांति और आत्मविश्वास का अहसास होता है वही सदगुरु रूपी संत की पहचान है ।।








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