Tuesday, 1 July 2014

साक्षी भाव

जीवन में कुछ ना कुछ बनने की दौड़ लगी रहती है ।कुछ बन जाने के बाद उसे खोने का डर रहता है । यह जीवन कुछ खोने और कुछ पाने के चक्कर में बीत जाता है । और अपना अहंकार ही कुछ पाने में ख़ुशी देता है और खोने में ग़म देता है ।आत्मा न कुछ खोता है न कुछ पाता है वह तो साक्षी भाव से सबकुछ देखता रहता है । जब हम याने मन रुपी अहंकार इस आत्मरुप के साथ एक हो जाता है तब मन की दौड़ भी शांत हो जाती है ।
जबतक मनरुपी जल में ऊद्वेग रुपी कंकर पड़ते रहेंगे तबतक अपना मन अशांत ही रहेगा । पर जैसे ही जल शांत होता है तब वह बाहर का प्रतीबींब दीखाता है और भीतर भी पारदर्शी रहता है ।

Saturday, 28 June 2014

ये अंग तेरा

ये अंग तेरा है,ये संग तेरा है ।ये दीया हुआ रुपरंग भी तेरा है ।सबकुछ तेरा है फीर भी जीवन में अंधेरा है । क्यों की जीवन में अहंकार काबसेरा है । ऐ दोस्त करदे अपने प्रेमरुपि ज्ञान को उजागर फीर देख हर सवेरा भी तेरा है ।

In your heart

I am always there with you in your heart,because I am part of your heart. You just remember me when ever you need me.  Just close your eyes and listen to your heart, because I am part of your heart. You love your self as much as you love me because I part of your heart

Saturday, 31 May 2014

Time

The day when you know the value and importance of others time at that time, time evaluet your time 

SPIRITUALITY :-Utility of your spirit for others growth that is spirituality 

Friday, 8 November 2013

Secularism

What is secularism?                Very wrongly interpret by politician and taking maximum advantage of this word. With there own definition they divide the nation and rule on nation. Every political party has focus to one cast or religion to win the election. No one even has a right to talk about secularism. But still they make fool to the people in the name of secularism.                           Secularism means distribute the benefits to the people without any cast or religious differences. Work on base of humanity. Don't give advantage to particular cast and religion. Equal distribution to all religion according to there skills and intelligence      

Saturday, 7 September 2013

संत की पहचान

संत और समाज एक दुसरे के परियाइ है। संत का जन्म एक समाज में से ही होता है। और यही समाज के हित की रक्षा का दाइत्व संत का है।संत का घर्म लोगों के चरीत्र की रक्षा करने का है और भटके हुए को मार्ग पर लानेका है।जब समाज में और लोगों के मन में विकृति बढ़ती है तो ऊसपर अंकुश लाने का कायॅ भी संत का है।मन में उठे हुए विचार और भावना के स्वार्थ से दुसरो को दुख न पहोचे एसे संस्कार देने का कायॅ भी संत का है।। अगर इस तरह का आचरण आप करते हो तो आप भी संत ही हो।।      अगर हम डर से,भयभीत हो कर या चमत्कार से संत की शरण में जाते है और श्रध्घा रखते है तो यह हमारी बहुत बड़ी भुल है। इस तरह रखी हुइ श्रध्धा को अंधश्रध्धा कहते है।।   श्रध्धा याने गुरू के वचन का पालन करना और उनके आचरण का अनुसरण करना ।श्रध्धा तो अंध ही होती है, पर अपने शिष्य की श्रध्धा पर अतुट विश्वास बनाकर रखने का कायॅ गुरूजन का है । अगर यही गुरूजन की कथनी और करनी में अंतर अा जाता है तो यही श्रध्धा अंधश्रध्धा बन जाती है ।और एसे गुरूजन अपने ही शिष्य की श्रध्धा के साथ विश्वासधात करते है ।।       कीसी भी प्रकार के भय,डर और चमत्कार के बगैर हमारे भीतर प्रेम के द्वारा जो आत्म विश्वास और श्रध्धा बढ़ाते है उन्हे सतगुरू कहते है।                  जहाँ श्रध्धा की कमी होति है वहाँ असुरक्षित ता का भाव जग जाता है ।और अनेक प्रकार की शंका,कुशंका मन में जग जाती है ।यही शंका कुशंका  मघुर संबंधों में कटुता पैदा करते है। इसी वजह से कइबार संबंध टुट भी जाते है ।।                           शंका कुशंका और असुरक्षित भावना हमें लोभ,लालच,मोह,क्रोध,अहंकार और असत्य के भंवर की और ले जाती है ।हमारा मन अपनी ही शंका को सत्य पुरवार करने के लीए असत्य का सहारा लेता है। और वही सत्य है उसका प्रमाण खुद को दे देता है । इसतरह मन खुद के बनाए हुए भंवर में फँस जाता है ।।                                                      मन अपनी पाँच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से खुद के वासनारूपी अांतर सुख को प्रत्यक्ष भोग ने हेतु अपनी ही पाँच कर्मेन्द्रियाँे को आदेश देता है। तब यह मन अपनी सारी शक्तिओ को एकत्रित करके छल या बल के माध्यम से क्षणीक सुख हाँसिल करता है ।                                             संत वो है जो अपनी पाँच ज्ञानेन्द्रियों को कछुअे के भाती अपने अंकुश में रखता है और दुसरो को अंकुश मैं रखना सीखाता है । जब भी हमारा मन उलझनो में फँसता है या जीवन से दुखी हो जाता है तब वह कृपा का, श्रध्धा का सहारा ढुंढता है । हमारी मजबुरी का फ़ायदा उठाकर डराकर या चमत्कार दीखाकर ऐसे ठग संत के वेशमें  हम पर हावी हो जाते है ।और हमसे पैसों की या अपने शरीर सुख की हवस को भोगते है । उलझन और दुख दुर करने की लालच मैं हम भी खुद को लुटाते रहते है ।।             जीनके सानिध्य से या मात्र चिंतन से मन में शांति और आत्मविश्वास का अहसास होता है वही संत है ।।

Wednesday, 14 August 2013

आझाद भारत

आझाद भारत को फीर आझादी की ज़रूरत    हुआ भारत आझाद अंग्रेजों कि हुकुमत से,     पर नहीं हुआ आझाद राजनीति की कुटनितीओं से।       कानुन बनाया अंग्रेजों ने, अपने हित की रक्षा के लीए, अब राजकारणी बनाते है कानुन अपने हित की रक्षा के लीए।।                     अशीक्षीत और गंवार समजते है हम मात्रुभाषा के रक्षक को,समजते है उसे शीक्षीत,जो बोलता है अंग्रेजी के चार शब्द को ।।           अपने ही देश में गौरांवित होने से डरता हुं,    हीन्दभाषी होके खुद हिन्दु बोलने से डरता हुं । नहीं है मुझे सोचने की अाझादी, नहीं है मुझै बोलने की आझादी, फीर भी कहता हुं मैं आझाद हुं ।।                                         आझाद भारत को फीर आझादी की ज़रूरत